May 23, 2023

84. समकालीन हिंदी कविता में चित्रित आदिवासियों का विस्थापन – सिम्ना.एन 

By Gina Journal

समकालीन हिंदी कविता में चित्रित आदिवासियों का विस्थापन

                           सिम्ना.एन

           आदिवासी इस धरती की मूल निवासी हैं| वे जल-जंगल-ज़मीन की अधिकारी होते हैं| प्रो.रामदयाल मुंडा के अनुसार “आदिवासी से हमारा तात्पर्य उन आर्येतर जनजातियों से है, जिन्हें संस्कृत साहित्य में असुर, निषाद, दस्यु, वानर, राक्षस आदि से संबोधित किया गया|”[1] है| विद्वानों ने आदिवासियों को अपनी सुविधा के अनुसार अलग अलग शब्दों में संबोधित किया है जैसे- नेटिव, नैव, प्रिमिटिव, एबारिजिनल्स, ट्राइब आदि| पराधीन भारत में आदिवासियों को जंगली, आदिम जात, वन्य जाति, आदिवासी, वनवासी, गिरिजन, आरण्यक, जन जाति आदि नाम से पुकारते थे| लेकिन स्वाधीन भारत में संविधान के निर्माण होने के वजह से उन्हें ‘अनुसूचित जनजाति’ का संज्ञा  मिला|

            हर विमर्श समाज को जानने समझने का प्रयास होता है| समकालीन साहित्य ने अनेक विमर्शों को जन्म दिया जिसमें प्रमुख है आदिवासी विमर्श| आदिवासियों की अस्तित्व एवं अस्मिता संकट को समाज के सामने लाने में इस विमर्श को अपनी पृथक भूमिका होती है| आदिवासी समुदाय एक ऐसा समाज है जो प्रकृति के एकदम निकट रहने वाले है| वे जंगल में जन्मते हैं, मरते हैं| उसका अस्तित्व अपनी निवास स्थान से यानी जंगल से होते है| वे जंगल और जानवरों से मिल-जुलकर अलग सा एक सामजिक जीवन बिताते हैं|

       अंधाधुंध विकास एवं विकास योजानाओं ने आदिवासियों को अपनी मूल जगह छोड़कर जाने के लिए बाध्य बनाता हैं| ज्यादातर विकास योजनाएँ आदिवासी इलाकों में होते हैं और इसका फायदा गैर आदिवासियों को ही मिलते हैं| आदिवासियों को जबरन अपनी भूमि से निकाला जाता हैं| आदिवासी विस्थापन को लेकर समकालीन हिंदी साहित्यकारों ने अनेक कविताएँ लिखी हैं| आदिवासी विस्थापन को आधार बनाकर लिखने वालों में प्रमुख हैं- हरिराम मीणा, ग्रेज कुजूर, निर्मला पुतुल, रामदयाल मुंडा, वाहरू सोनवणे, अनुज लुग्न, रोज केरकट्टा, मंजू ज्योत्स्ना आदि|

          भूमंडलीकरण के उपरांत आदिवासी विस्थापितों की संख्या बढ़ने लगे| इस विषय को कवि प्रभुनारायण मीणा अपनी कविता में ऐसे संबोधित किया है जैसे-“औद्योगीकरण व विकास के नाम पर/ विस्थापन तेरा हुआ/ जल, जंगल, ज़मीन गई/ तू मूल निवासी बेसहारा हुआ/ क्यों न पसीना कलेजा इनका?/ आया न आँसू आँख में”[2]| औद्योगीकरण व विकास ने आदिवासियों को बड़ी पैमाने पर जल-जंगल-ज़मीन से निकाला गया| जिन लोग जल-जंगल-ज़मीन के स्वामी थे वे लोग भूमि रहित हो गए| जिनके अस्तित्व अपने निवास स्थान से थे वे अब खो गए है| विस्थापन ने उन्हें अस्तित्व हीन बना दिया है| उनके आँखों में आँसू नहीं है वे बेसहारा बन गए हैं|

         विकास बनाम विस्थापन से बिगड़े आदिवासी जीवन को उखेरते हुए प्रभुनारायण मीणा जी लिखते हैं- “क्या बिगाड़ा हमने/ जो विस्थापन हमारा हुआ/ गये खेत खलिहान हमारे/ विकास औरों का हुआ/ फिरती डोलूं जंगल जंगल/ नहीं मंगल की आशा/ बेबस लाचार जीवन/ टूट गयी जीवन आशा|”[3] यहाँ आदिवासी विस्थापन की एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण की ओर कवि इशारा किया है| विस्थापन एवं खेत खलिहानों का नष्ट आदिवासियों की और विकास होता है गैर आदिवासियों की| यह सोचने का विषय है| क्योंकि क्या आदिवासी समुदाय गैर आदिवासियों की विकास के लिए बने हैं? क्या वह मनुष्य नहीं है? संविधान में जो बराबरता का प्रस्ताव है वह आदिवासियों के लिए लागू नहीं है? उन्हें ज़िन्दगी भर ‘टूट गयी आशा’ के साथ जीना हैं? इन सभी सवालों का जवाब आदिवासी विमर्श का विषय हैं|

      अनेक आदिवासियों ने विस्थापित होकर अन्य जगह जाकर बसे हैं| विस्थापन ने उसके पारिवारिक जीवन को अस्थिर बना दिया हैं| पारिवारिक विघटन को लेकर डॉ. मंजू ज्योत्स्ना ने अपनी कविता ‘विस्थापित का दर्द’ में लिखा हैं- “आऊँगा अगले वर्ष कहा था/ बेटे ने बार-बार कहने के बावजूद/ पिछले कई वर्षों से आया नहीं था/ शिकायात है उसे जब अपने गाँव में/ पलाश के फूल नहीं रहे/ सरई के वन नहीं रहे|”[4] विस्थापित होकर अन्य जगह जीनेवाले एक बेटे के दर्द को यहाँ रचनाकार व्यक्त की है| जलावतनी के कारण सालों से बाप-बेटा देखा तकनहीं है|विस्थापन ने पारिवारिक सदस्यों के बीच दूरियां पैदा करते है| जो बाद में पारिवारिक विघटन को जनम देते हैं|

           भूमि अधिग्रहण एवं अंधाधुंध विकास नीतियों ने आदिवासियों को शिकार करते रहते हैं| डॉ. मंजू ज्योत्स्ना अपनी कविता ‘घर छोड़ने के बाद’ में विकास योजनाओं की अमानवीय चेहरा को पर्दाफाश करते हुए लिखती हैं- “वन काट-काटकर खारखाना बने/ काले धुए से सबके मन जले/ मेरी नदी, मछली फंसाने की जगह/ ऊबड़-खाकर, ऊंची-नीची धरती/ कहाँ गयी कहा गयी/ नदी बाँध-बांधकर बाँध/ मेरी आज़ादी छीनी किसने/ नहीं, नहीं, नहीं जाना है झारखण्ड/ मुझे न ले जाना बंधु न ले जाना|”[5]

              विकास योजनाओं ने बड़े-बड़े बांध योजनाओं को जन्म दिया। उसके साथ विस्थापन का शुरुआत भी हुआ। बांध योजनाओं ने अनेक गांवों को नष्ट किया तथा अनेक लोगों को बेघर बना दिया। उन्हें उनकी बनी-बनाई बस्ती को छोड़कर दर-दर भटकने पर मजबूर कर दिया। इस गंभीर विषय पर हरिराम मीणा जी अपनी राय इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि- “मैंने महसूस किया जैसे/ अभी अभी हुआ है सामूहिक कत्ल/ किन्ही मासूम बेगुनाह और/ अलहड़ मानव समूहों का जिनके साथ/ एक लंबे इतिहास/ सभ्यता, संस्कृति और सपनों का/ दम घुटने लगा मेरा/ पानी के उस तहखाने में।”[6]  निर्वासन ने आदिवासियों को अपना सब कुछ खो दिया है। जो प्रकृति के साथ,  उनमें से एक बन कर जी रहे थे  अब उसके लिए तड़प रहे हैं। पूरी कानून या सरकारी योजनाएं उनके साथ हाथ नहीं देते। इस स्थिति को व्यक्त करते हुए हरिराम मीणा  लिखते हैं- “सभ्यता के नाम पर/ आखिर कर दिए जाओगे बेदखल/ हजारों सालों की तुम्हारी/ पुश्तैनी ‘भौम’ से/ कोई और होंगे अब कानूनी हकदार/ नारियल के इन दरखतों के।”[7]

           सहज रूप से जंगल में विचरनेवाले   लोगों को अब नगरों एवं महानगरों की गंदी सड़कों पर सोना पड़ता है। यहां आदिवासियों का शारीरिक शोषण के साथ-साथ नैतिक एवं सामाजिक शोषण भी होता है। विस्थापितों ने अपनी यादों में जीने वाले होते हैं। वह विस्थापित होकर दूसरी जगह आए हैं। लेकिन उनका मन सदा अपनी मूल भूमि में ही होते है। वह अपनी मूल स्थान की यादों में जीते हैं। विस्थापितों की उदासीनता को व्यक्त करते हुए ग्रेस कुज़ूर लिखती है- “कहां है वह फूटकल का गत/ जहां चढ़ती थी मैं / साग तोड़ने/ और गाती थी तुम्हारे लिए फगुआ के गीत/ जाने किधर है/ कोमल पत्तियों वाला कोयनार का गाज/ जिसके नीचे तुम बचाया करते थे/ मांदर और बांसुरी?”[8]

        विस्थापितों के लिए पुनर्वास की सुविधाएँ प्रदान करना अत्यंत ज़रूरी बात है| लेकिन अनपढ एवं अनभिज्ञ होने के कारण उन्हें पुनर्वास की सुविधा एवं उचित मुआवजा नहीं मिलते हैं| राजनीतिज्ञ एवं शासकों ने इस विषय में ज़्यादातर रूचि नहीं देते हैं| वे पुनर्वास नीतियों की झूठा आश्वासन देकर आदिवासियों को दोखा देते हैं| इस पर प्रभुनारायण मीणा जी कहते हैं- “ना काफ़ी सरकारी योजना/ नहीं पुनर्वास की नीति/ चरों तरफ़ शोषण है/ वोट बटोरू है राजनीति|”[9]

       विकास ने आदिवासी समुदाय को झकझोर डाला हैं| आदिवासी लोग अपनी पृथक जीवन शैली से अन्य समुदायों से अलग रहते हैं| उन्हें अपनी सामजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक विशेषताएं होते हैं| लेकिन जलावतनी ने उन्हें इन सभी से अलग कर दिया हैं| उन्हें अपनी मूल निवास स्थान को छोड़कर ‘मूल निवासी’ न बनकर जाना पड़ते हैं| उन केलिए अपनी मूल जगह केवल मिट्टी नहीं है, बल्कि वह अपने पुरखों का याद है, अपना इतिहास हैं| विस्थापन की प्रक्रिया ने किस प्रकार आदिवासी समाज एवं सामाजिक स्थिति को छिन्न-भिन्न कर दिया है उसको महादेव टोप्पो ने अपनी कविता ‘सबसे बड़ा खतरा’ में अभिव्यक्त किया हैं| कवि कहता हैं- “अपने ही घरों में/ अपने ही जंगलों पहाड़ों के साम्राज्य में/ शेर थे कभी हम/ अब मेमने हुए जा रहे हैं/ शेर से मेमने होने की प्रक्रिया में/ सिर्फ अपने खेत खलिहान मकान ही नहीं खोये हैं हमने/ खोयी है सैंकडों वर्षों से अर्जित/ पुरखों के गढ़े पसीने की कमाई/ अपनी भाषा संस्कृति और इतिहास|” विस्थापन ने आदिवासियों को अपने जड़ से निष्कासित किया हैं| उन्हें अपने पुरखों द्वारा अर्जित संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा को खो देना पड़ते हैं| उन्हें अपनी इतिहास नष्ट हो जाते हैं| एक समय में शेर यानी मालिक बनकर जीनेवालों को अब मेमना यानि गुलाम बनकर जीना पड़ते हैं|

           आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर होनेवाले विस्थापन को निर्मला पुतुल ने इस प्रकार भाष्य दिया है- “अगर हमारे विकास का मतलब/ हमारी बस्तियों को उजाड़कर/ कल कारखानें बनना हाँ/ तालाबों को थोथकर राजमार्ग/ जंगलों का सफाया कर आफिसर्स कॉलोनियां बसानी हैं/ और पुनर्वास के नाम पर हमें/ हमारे ही शहर की सीमा से बाहार हाशिये पार धकेलना है/ तो तुम्हारे तथाकथित विकास की मुख्यधारा में/ शामिल होने के लिए/ सौ बाए सोचना पड़ेगा हमें|”[10] विकास के नाम पर आदिवासियों पर होनेवाले धोखेबाजी को निर्मला पुतुल यहाँ स्पष्ट किया है| बस्तियों को उजाड़कर खल-कारखानें बनना, तालाब नष्ट करके राजमार्ग बनना, जंगल काटकर आफिसर्स कॉलोनियां बनना आदि आखिर किसके लिए होते हैं? न आदिवासी के लिए होते है न आदिवासी समुदाय की प्रगति के लिए| यह सब गैर आदिवासियों की सुविधापूर्ण जीवन के लिए होते हैं| गैर आदिवासियों की ज़िन्दगी को आसान बनाने के लिए आदिवासियों को अपनी ज़िन्दगी खो देना पड़ते हैं| ‘तथाकथित विकास’ से एक प्रत्येक समाज लाभ उठाते हैं| और एक प्रत्येक समुदाय को सबकुछ नष्ट हो जाते हैं| इसलिए कवयित्री कहती है कि इस प्रकार का विकास में भाग लेने से पहले उन्हें सौ बार सोचना पड़ेगा|

 आदिवासियोंकीतमामसमस्याओंकामूलविस्थापनहै|इसलिएआदिवासीकविताओंकामूलस्वरविस्थापनहीहोताहै| समकालीनकवियोंनेसमय-समयपरइसविषयपरखूबसारीकविताएँलिखकरप्रस्तुतविषयकोसमाजकेसामनेलानेकासफलप्रयासकियाहैं|

                  संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, सं. रमणिका गुप्ता
  2. आदिवासी विकास से विस्थापन, सं. रमणिका गुप्ता
  3. सुबह के इंतजार में, (कविता संग्रह) हरिराम मीणा
  4. अरावली उद्घोष, आदिवासी कविता अंक 81, सं. वी.पी. वर्मा
  5. समवेत, आदिवासी विमर्श पर केंद्रित विशेषांक, सं. नवीन नंदवाल

[1]प्रो.रामदयाल मुंडा, आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल

[2] प्रभुनारायण मीणा, ये किसने आग लगाई

[3] प्रभुनारायण मीणा, आदिवासी महिला की व्यथा

[4] डॉ. मंजू ज्योत्स्ना, विस्थापित का दर्द

[5] डॉ. मंजू ज्योत्स्ना, घर छोड़ने के बाद

[6] हरिराम मीणा, सरदार सरोवर में डूबा आदिवासी भविष्य

[7] हरिराम मीणा, कैसे करोगे साबित

[8] ग्रेस कुज़ूर,

[9] प्रभुनारायण मीणा, आदिवासी महिला की व्यथा

[10] निर्मला पुतुल, तुम्हारे एहसान लेने से पहले सोचना पड़ेगा हमें

सिम्ना.एन

शोध छात्रा

श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालडी,

केरल