May 21, 2023

80. आरंभिक हिन्दी उपन्यासों में स्त्री का स्वरूप – सलमान

By Gina Journal

आरंभिक हिन्दी उपन्यासों में स्त्री का स्वरूप – सलमान

शोध आलेख सार :

              हिन्दी उपन्यास का आरंभ आधुनिक युग में होता है । आधुनिक युग का आरंभ नवजागरण से माना जाता है, स्त्री नवजागरण के केंद्र में रही है । नवजागरण की तमाम चिंताओं में स्त्री के सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार की चिंता सबसे अहम है । समाज-सुधारकों और चिंतकों का मानना था किसी भी समाज की आधार स्त्री होती है । समाज में बुनियादी बदलाव एवं सुधार के लिए स्त्री सुधार सबसे आवश्यक है । इसी कारण से नवजागरण में विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा का बढ़ावा और बाल-विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया गया । इन्हीं नवजागरणकालीन मूल्यों और विचारों का प्रतिफलन हमें आरंभिक हिन्दी उपन्यासों में दिखता है । इन उपन्यासों के केंद्र में मुख्यतः स्त्री ही होती है । इन विचारकों की मूल चिंता यह थी की स्त्री शिक्षा के माध्यम से हम स्त्री के चरित्र में कुछ चारित्रिक सुधार ला सकें । किन्तु इन उपन्यासों की एक कमज़ोरी है वह यह की यह उपन्यास स्त्रियों के चरित्र में उन विकासों को देखना चाहते हैं जो स्त्रियों को एक आदर्श गृहणी के रूप में प्रतिस्थापित कर सकें । इन उपन्यासों का उद्देश्य स्त्रियों को शिक्षित कर उनके अस्तित्व और अस्मिता को स्थापित करना नहीं रहा है । स्त्री पहले भी एक गृहणी ही थी अब भी इन उपन्यासों के माध्यम से भी उसे महज एक गृहणी बनाने का सपना ही देखा जा रहा है बस अंतर सिर्फ इतना है की उसको पहले से अधिक कुशलता और चतुरता से लैस एक सामान्य स्त्री के मुकाबले एक आदर्श गृहणी बनाने का उद्देश्य इन उपन्यासकारों का है ।

बीज शब्द : स्त्री चरित्र , उपन्यास, आदर्श गृहणी, नवजागरण, स्त्री-शिक्षा, पितृसत्ता

               हिन्दी उपन्यास ने अपने आरंभ से स्त्री संबंधी मुद्दों और चुनौतियों को अपना मूल कथ्य बनाया है ।  हिन्दी उपन्यास का आरंभ सुधारवादी रहा है । इन सुधारों में भी मूलतः स्त्री सुधार पर उसका विशेष जोर था । स्त्री शिक्षा उस दौर का सबसे ज्वलंत मुद्दा था । नवजागरण और सुधारवाद के दबाव के कारण लेखकों पर यह दबाव था कि वह स्त्रियों को पढ़ने लिखने और उनके व्यक्तित्व को युगानुरूप ढ़ालने की कोशिश करें । इसी प्रयास का एक रूप हमें आरंभिक कुछ उपन्यासों में देखने को मिलता है । ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ हो या ‘भाग्यवती’ या ‘वामा शिक्षक’ इस तरह के उपन्यासों की मूल चिंता यह थी कि स्त्री को शिक्षा मिले, ताकि वह अपने घर-संसार को बेहतर ढंग से चला सके । वह बच्चों का लालन-पोषण अच्छे से कर सके, घरखर्च कम से कम में कर सके तथा घर में काम कर ‘घर के पुरुष’ को आर्थिक सहायता प्रदान कर सकें । स्त्री के संबंध में विकास की धारणा को इन लेखकों ने प्रगतिवादी होते हुए भी परंपरागत मूल्यों के समक्ष घुटने टेके हैं । स्त्री शिक्षा के माध्यम से सिर्फ वह उसे ग्रहस्थ जीवन के दायरे तक सीमित रखना चाहते थे । भारतेन्दु हरिश्चंद्र जैसे युग निर्माता भी स्त्री के संबंध में आधुनिकता और परंपरा के इस संश्लेषण से बच नहीं पाए थें । भारतेन्दु अपने नाटक ‘नीलदेवी’ की भूमिका में लिखते हैं – “जिस भाँति अँग्रेज़ स्त्रियाँ सावधान होती हैं, पढ़ी-लिखी होती हैं, घर-काम संभालती हैं, अपने संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना सत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और अपने देश की संपत्ति-विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं और इतने समुन्नत मनुष्य जीवन को गृह-दास्य और कलह ही में नहीं खोतीं उसी भाँति हमारी गृह-देवता भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है ।”[i] यहाँ तक तो भारतेन्दु के भीतर आधुनिकता की छाँव दिखायी देती हैं लेकिन इसमें भी हम देखते हैं कि स्त्री की शिक्षा का मूल उद्देश्य एक आदर्श चतुर ग्रहस्थ स्त्री का निर्माण करना रहा है, न कि उस स्त्री का अपने अधिकार बोध और अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग होना । भारतेन्दु आगे लिखते हैं -“इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरंगी युवती समूह की भाँति हमारी कुल्लक्ष्मी गण भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमै ।” भारतेन्दु अंग्रेज स्त्रियों की तरह तो भारतीय स्त्रियों को शिक्षित और एवं जागरूक बनाना चाहते हैं लेकिन इतना ही भर की वह देश दुनिया की जानकारी रखते हुए अपने परिवार को एक बेहतर तरीके से चला सके बच्चों को उचित शिक्षा दे सके, किन्तु भारतेन्दु अंग्रेजी स्त्रियों की तरह उनको व्यक्तिगत स्वतंत्रता देने के सख्त खिलाफ थे । उनका मानना था की स्त्रियों का पुरुषों के साथ घूमना निर्लज्ज होना है ।

               विचारों का यह विरोधाभास तत्कालीन समय में एक आम धारणा की तरह प्रचलित था । तत्कालीन समय में समाज-सुधारक लेखक स्त्रियों को एक प्रजनन करने वाली वस्तु से अधिक उपभोग करना चाहते थे । इस नए दौर में वह शोषण के नए तरीके ईजाद कर रहे थें , जो देखने में तो लगता था यह स्त्रियों के सुधार के लिए हो रहा है लेकिन सवाल वहीं अटका हुआ है कि यह सुधार किसके लिए अंततः इसका भी फायदा पितृसत्ता को ही हो रहा था । हिन्दी उपन्यासों की बात करें तो गोपाल राय के अनुसार हिन्दी के पहले उपन्यास पं. गौरीदत्त कृत ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ में ही स्त्री के स्वरूप को एक आदर्श नारी के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गई है । “कथा की ‘देवरानी’ का चरित्र ‘प्ररूप’ और लेखक के विचारों का उदाहरण है । वह सुशील है, शिक्षित है, सलीकेदार है, नम्र है, समझदार है, शिशु पालन में प्रवीण है,….उसके (जेठानी) चरित्र द्वारा कथाकार ने तत्कालीन स्त्रियों में व्याप्त अशिक्षा, अंधविश्वास, कलह, अज्ञान आदि का विश्वसनीय अंकन किया है।”[ii] इस उपन्यास में लेखक ने दो स्त्रियों को समानांतर रखते हुए अच्छी स्त्री और बुरी स्त्री की अवधारणा को स्थापित किया है । एक स्त्री के अच्छे और एक स्त्री के बुरे होने के कौन से प्रतिमान हैं वह इस उपन्यास में दर्शाया गया है । स्त्री जो सबको खुश रखे, सबका कहना माने, पुरुषों के मुंह न लगे, अपने अस्तित्व और पहचान को भूल कर जो ग्रहस्थ जीवन का पालन करें वह स्त्री ही इस पितृसत्तात्मक समाज में एक आदर्श नारी कहलाने के लायक है । इस उपन्यास ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ में भी बढ़े भाई की बीवी को काम-धाम नहीं आता, वह सबसे लड़ती रहती है इस तरह का चरित्र उसका लेखक ने दर्शाया है, वहीं छोटे भाई की बीवी जो देवरानी है उसको एक आदर्श स्त्री के रूप में लेखक ने चित्रित किया है लेखक देवरानी के चरित्र की व्याख्या करता हुआ लिखता है – “सबेरे उठकर बुहारी देती । चौका बासन कर दूध बिलोती । फिर नहा-धो के भगवान का नाम लेती । रोटी चढ़ाती । जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दुकान से रोटी खाने आते । जब वे खा लेते और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती । फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपिया पै कलाबत्तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती । … और जब कभी ज्ञान चर्चा छेड़ देती तो भगवत गीता के श्लोक पढ़-पढ़कर ऐसे सुंदर अर्थ करती कि सुनकर सब मोहित और चकित हो जातीं । रात को जब सब ब्यालू कर चुकते यह अपने चौबारे चली जाती और रात को दस बजे तक जहां-तहां की बातचीत करके हँसती और बोलती रहती।”[iii]  आलोचक वैभव सिंह इस छद्म सुधारवाद की पोल खोलते हुए लिखते हैं –“औरत को समझदार मशीनी गुड़िया में बदलने की हर कोशिश मौजूद है इस किस्म के सुधारवाद में । वह घर संभालती है, सीने-पिरोने का काम करती है, घर के सौदे का हिसाब करती है और फिर जी खोलकर घरवालों से बतियाती है और उन्हें खुश रखती है । इस समय दो औरतों के बीच के अंतर को दिखाने के लिए उन्हें अलग-अलग रूप से गढ़ा गया । एक अच्छी है, दूसरी बुरी । एक निपुण है दूसरी निकम्मी । एक धर्म –कर्म में रुचि लेती है, दूसरी को इसकी परवाह ही नहीं है ।”[iv]

                हमारे समाज में सभी सुधारों का ठेका पुरुषों ने स्त्रियों पर थोप रखा है । पुरुष को खुद के भीतर झाँकने की आवश्यकता है कि वह किन मामलों में निठल्ला और शोषक है उसे स्त्रियों को समानांतर अवसर प्रदान करना चाहिए उसको देखना चाहिए कि किन सामाजिक समस्याओं का आधार पुरुष है, किन्तु वह इन समस्याओं की वजह स्त्री को समझता है और सोचता है कि यदि स्त्री ने अपने स्वत्व और अपने अधिकारों के प्रति समझौता कर लिया तो यह सामाजिक संघर्ष उपजेगा नहीं । इसीलिए पुरुष समाज या कहें की पितृसत्ता स्त्रियों को सामाजिक सुधार की धुरी के रूप में देखता है । पितृसत्ता स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं सकता उसे जीती जागती स्त्री पसंद नहीं आ सकती उसे सिर्फ वह गुड़िया चाहिए जो उसके इशारों पर नाच सके वह कभी भी प्रश्न न करें उसको जो जितना कहा जा जाए उतना ही करें, अतः कह सकते हैं कि उसके जीवन की सार्थकता केवल सेवार्थ में हैं । हिन्दी उपन्यास की दुनिया भी इसी पितृसत्ता के पहरेदारों द्वारा खोजी गई और उस दुनिया में उन्होंने स्त्रियों को इसी एक आदर्श स्त्री के रूप में चित्रित किया, किन्तु एक आदर्श को स्थापित करने के लिए उसे उसका प्रतिरोधी भी खड़ा करना था इसीलिए उसने एक बुरी स्त्री कैसी हो सकती है, क्या करने से एक स्त्री के भीतर इस खलनायिका का जन्म हो सकता है, उसके इस प्रतिरूप को गढ़ा । इन उपन्यासकारों का यह उद्देश था, जिसके माध्यम से वह अपनी उस आदर्श स्त्री को समय- समय पर जागृत कर सकें ।

              हिन्दी उपन्यास में ‘देवरानी जेठानी’ के तर्ज पर दो और आचरण पुस्तके उपन्यास की शक्ल में लिखे गए । जिनमें से एक लेखक द्वय ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय द्वारा ने 1872 में ‘वामा शिक्षक’ लिखी । लेखक ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने इस उपन्यास की रचना उर्दू के डिप्टी नज़ीर अहमद के उपन्यास ‘मिरातुल उरुस’ से प्रेरणा ग्रहण करके लिखी । इस बात को लेखक द्वय अपने उपन्यास की भूमिका में स्पष्ट कर देते हैं । उर्दू का यह उपन्यास मुसलमान स्त्रियों को शिक्षित करने के उद्देश्य से लिखा गया था जिसको सरकार से एक हजार रुपये का पुरुस्कार भी मिला था । लेखक द्वय अपने उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं – “इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों के पढ़ने के लिए एक-दो पुस्तकें जैसे मिरातुल उरुस आदि बन गई हैं परंतु हिन्दुओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई जिस्से उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुंचे ।”[v] वामा शिक्षक ‘देवरानी-जेठानी’ की तरह ही एक आचरण पुस्तक है । इसके भीतर भी लेखक हिन्दुओं की लड़कियों को किस तरह से जीवन यापन करना चाहिए उसकी नसीहत दे रखी हैं । अच्छी औरत और बुरी औरत के प्रतिमान इस उपन्यास में भी बनाएं गयें हैं । उपन्यास की भूमिका में ही लेखक द्वय उपन्यास के उद्देश्य को रेखांकित कर देते हैं, वह लिखते हैं –“निश्चय है कि इस पुस्तक से हिन्दुओं की लड़कियों को हिन्दुओं की रीति-भाँति के अनुसार लाभ पहुंचे और सुशील हों और जितनी (बुरी) चालें और पाखंड जिनका आजकल मूर्खता के कारण प्रचार हो रहा है उनके जी से दूर हो जाएंगे और बुरी प्रवृत्तियों को छोड़कर अच्छी प्रवृत्तियां सीखेंगी और लिखने पढ़ने और गुण सीखने की रुचि होगी, क्योंकि प्रत्येक बुराई का दृष्टांत ऐसी रीति से लिखा गया है कि उसके पढ़ने और सुन्ने से उनके स्वभावों और उनकी मूर्खताओं के स्वभावों में साहस उत्पन्न होगा और जब साहस उत्पन्न हुआ तो छोड़ देना और छुड़ा देना उस बुराई का कुछ बात नहीं है और यों ही प्रत्येक भलाई के बहुत से दृष्टांत लिखे गऐ हैं कि वह भलाई की ओर रुचि दिलाते हैं ………।”[vi]

                मुख्यतः इस पुस्तक की कल्पना एक ऐसी स्त्री की सृजना करना थी जिसके माध्यम से वह समाज में इन स्त्रियों की छवियाँ देख सकें । इन स्त्रियों का स्वरूप पारंपरिक स्त्रियों की छवियों से अलग था यह स्त्रियाँ स्वालंबी और ग्रहस्थ जीवन को चलाने के लिए शिक्षित भी थी, किन्तु इनकी शिक्षा और स्वालंबिता का भी फायदा पितृसत्ता को ही हो रहा था स्त्रियों के चरित्र में चारित्रिक विकास के जो सोपान पितृसत्ता ने गढ़े थे वह स्वयं के फायदे के लिए ही गढ़े थे । वामा शिक्षक में “कथा का प्रमुख पात्र, मथुरादास, अपनी पुत्रियों को स्कूल में भेजना तो अपनी ‘प्रतिष्ठा’ के अनुरूप नहीं मानता, पर उन्हें ‘नागरी’ और ‘संस्कृत’ पढ़ाने के लिए शिक्षिका अवश्य नियुक्त कर देता है । लड़कियों के पाठ्यक्रम में पढ़ना-लिखना, गिनती-पहाड़ा सीखना, सब्जी बनाना, गुड़िया बनाना, सीना पिरोना, जाली काटना, बेलबूटे काढ़ना आदि शामिल हैं । इससे उस काल की लड़कियों के जीवनादर्श, कुशल गृहणी बनने – बनाने की आकांक्षा, का पता चलता है ।”[vii] स्त्रियों को शिक्षा के नाम पर सिर्फ गृह-विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी तकनीकी शिक्षा तक उनकी पहुँच संभव नहीं हो पाती थी । गोपाल राय लिखत हैं कि –“एक युगानुरूप आदर्श स्त्री के जितने भी गुण हो सकते हैं – यथा शिक्षित होना, बड़ों का सम्मान करना, घर का समुचित प्रबंध करना, स्वावलंबी बनना, छोटों से स्नेह करना, बच्चों का उचित ढंग से पालनपोषण करना आदि – उनका सोदाहरण वर्णन किया गया है । आदर्श स्त्री के जो भी गुण उस काल की कसौटी पर मान्य थे, वे मथुरादास की बहु और उसकी पुत्रियों में और जो भी संभव दुर्गुण हो सकते थे, वे जमुनादास की स्त्री और उसकी लड़कियों में भर दिए गयें हैं ।”[viii]

               इन उपन्यासों की एक सबसे बड़ी कमी रही है वह यह कि एक स्त्री को अच्छा दिखाने के लिए दूसरी स्त्री को खराब दिखाना । एक सच्चरित्र है तो दूसरा खलचरित्र । स्त्री के दुश्मन के रूप में स्वयं स्त्री को ही खड़ा किया गया है । इसका दूसरा उदाहरण वामा शिक्षक की रचना के पाँच वर्ष बाद 1877 में लिखे श्रद्धाराम फिल्लौरी के उपन्यास ‘भाग्यवती’ में देख सकते हैं जहां भाग्यवती को एक आदर्श बहु और गृहणी के रूप में चित्रित किया गया है और वहीं ‘लड़ाकी’ नामक स्त्री का चित्रण ‘हवा से लड़ने वाली’ झगड़ालू स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है । ‘श्रद्धाराम फिल्लौरी’ के विचार भी ‘पंडित गौरीदत्त’ और लेखक द्वय (ईश्वर राय और कल्याणी राय) की ही तरह थे । उनको भी एक आदर्श ग्रहस्थ स्त्री को चित्रित करना था और इनको भी एक ऐसी ही स्त्री को चित्रित करना था । श्रद्धाराम फिल्लौरी लिखते हैं –“यद्यपि कई स्त्रियाँ कुछ पढ़ी-लिखी तो होती हैं, परंतु सदा अपने ही घर में बैठे रहने के कारण उनको देश विदेश की बोलचाल और अन्य लोगों से बरत व्यवहार की पूरी बुद्धि नहीं होती और कई बार ऐसा भी देखने में आया कि जब कभी उनको विदेश में जाना पड़ा तो अपना गहना कपड़ा बर्तन आदिक पदार्थ खो बैठीं और घर में बैठी भी किसी छली स्त्री पुरुष के बहकाने से अपने हाथ से अपने घर का नाश कर लिया । फिर यह भी देखा जाता है कि बहुत स्त्रियाँ अपनी देवरानियों जेठानियों से आठों पहर लड़ाई रखतीं और सासू ससुरे और अपने भर्ता का निरादर करने लग जाती हैं । कई स्त्रियों को अपने घर के हानि लाभ की ओर कुछ ध्यान न होने के कारण घर का सारा ठाट बिगाड़ लेतीं और कइयों के घरों को नौकर चाकर लूट 2 खाते और उनको संयम और यत्न से कुछ काम न होता । कई स्त्रियाँ बिपत काल में उदास हो के अपनी लाज को बिगाड़ लेतीं और अयोग्य और अनुचित कामों से अपना पेट पालने लग जाती हैं । और कई विद्या से हीन होने के कारण सारी आयु चक्की और चरखा घुमाने में समाप्त कर लेती हैं ।”[ix] फिल्लौरी जी ने इस उपन्यास के माध्यम से उन स्त्रियों का चित्रण किया है जो अशिक्षा के कारण अपना घर-संसार खराब कर लेती हैं । कई स्त्रियों के पढ़े-लिखे न होने की वजह से किस तरह नौकर और नौकरानियाँ घर की संपत्ति को नुकसान पहुंचाती और उसका पता किसी को नहीं चलता । पढ़ी-लिखी शिक्षित स्त्री इन सब चीजों से बच जाती है और एक आदर्श ग्रहणी के रूप में अपना दायित्व का निर्वहन करती है । फिल्लौरी जी की भी चिंता सिर्फ इतनी ही है कि घर की स्त्री को सब कम अच्छे से आना चाहिए । फिल्लौरी जी भी अपने समकाल के दूसरे लेखकों की तरह ही स्त्री को सिर्फ एक आदर्श ग्रहणी के रूप मे ही देखना चाहते हैं । स्त्री की शिक्षा की चिंता भी सिर्फ उनको इसलिए है कि स्त्रियों से अशिक्षित होने की वजह से जो नुकसान पुरुषों को उठाना पड़ता है वह नुकसान न उठाना पढ़े । वे भी स्त्री को उसके अस्तित्व और उसके अधिकारों के प्रति सचेत करने से हिचकिचाते थे । यह कमज़ोरी कमोबेश तत्कालीन समय में सभी लेखकों और विचारकों की थी, और फिल्लौरी जी भी इससे बच नहीं पाए थें । वे अच्छा और आदर्श होने की संकल्पना सिर्फ स्त्री के लिए ही कर पा रहे थे, चूंकि उनका मानना था कि स्त्री का संबंध घर से ही हैं, इसलिए उसका आदर्श रूप आवश्यक हैं । पुरुषों से ऐसे सुधार की कल्पना किसी लेखक ने नहीं की ।

                अंततः इन तथ्यों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि नवजागरण के दौर में जिन हिन्दी उपन्यासों का जन्म हुआ उन सभी उपन्यासों के केंद्र में अधिकतर स्त्रियाँ ही रहीं हैं, इसका एक कारण यह भी है कि खुद नवजागरण के केंद्र में बहस का मुद्दा मुख्यतः स्त्रियाँ ही थी । स्त्रियों के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए तत्कालीन लेखक और विचारक अग्रसर थे । उनका मानना था शिक्षा के माध्यम से हम स्त्रियों का सामयिक विकास कर सकते हैं और इसलिए इन उपन्यासों के केंद्र में भी स्त्री शिक्षा मुख्य भूमिका निभाती है । लेकिन इन सबके बावजूद समस्या यह है कि इन लेखकों के केंद्र में स्त्रियों की शिक्षा बहुत हद तक सीमित विषयों तक ही है । वे स्त्रियों को महज उतनी ही शिक्षा या कहें की उन विषयों की ही शिक्षा देना चाहते थे जो सिर्फ उनको एक बेहतर आदर्श गृहणी के रूप में स्थापित करे । शिक्षा के उन विषयों से स्त्रियों को दूर रखा गया जिनका कार्य-क्षेत्र पुरुषों का था । अथार्थ उपन्यासकारों के लिए स्त्री सुधार महज उनको एक कुशल गृहणी के रूप में प्रतिस्थापित करना रहा है ।

[i] भारतेन्दु हरिश्चंद्र, नीलदेवी (भूमिका)

[ii] गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ सं-27

[iii] पं. गौरीदत्त, देवरानी जेठानी की कहानी, (उद्धृत) वैभव सिंह, आलेख – सुधारवाद और उपन्यास, हिन्दी समय ई-पोर्टल

[iv] वैभव सिंह, आलेख – सुधारवाद और उपन्यास, हिन्दी समय ई-पोर्टल

[v] ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय, वामा शिक्षक, भूमिका, प्रस्ताविक – गरिमा श्रीवास्तव

[vi] ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय, वामा शिक्षक, भूमिका, प्रस्ताविक – गरिमा श्रीवास्तव

[vii] गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ सं-30

[viii] गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ सं-31

[ix] श्रद्धाराम फिल्लौरी, भाग्यवती, भूमिका (उद्धृत – गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ सं-32)

सलमान

शोधार्थी – हिन्दी विभाग

केन्द्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु

तिरुवारूर , 610001