79. डॉ. देवेंद्र दीपक की चुनी हुई कविताओं में दलित चेतना – धन्या. एस
डॉ. देवेंद्र दीपक की चुनी हुई कविताओं में दलित चेतना
धन्या. एस
समाज में प्रचलित सभी प्रकार की असमानताओं का विरोधी है दलित विमर्श । दलित विमर्श एक सांस्कृतिक और सामाजिक आन्दोलन है। हिंदी में दलित विमर्श का प्रारंभ ‘ सारिका ‘ के दो दलित विशेषांकों से माना जाता है और ‘ हंस’ पत्रिका में भी दलित विमर्श की चर्चा करते थे । दलित साहित्य एक मनोरंजनकारी साहित्य नहीं है मन और सोच बदलने का साहित्य है | दलित साहित्य में के आक्रोश दिखाई देता है , वह एक ऊर्ज का काम रहा है , वही दलित साहित्य को गतिशीलता के साथ जीवंत भी बनाता है ।
अंबेडकर और ज्योतिबा फुले की चिंतन धारा को आधार बनाए दलित साहित्य का शुरुआत कविता से हुआ। सन् १९४१ में ‘ सरस्वती ‘ पत्रिका में प्रकाशित हीरा डोम की कविता ‘ अछूत की शिकायत ‘ से यह शुरुआत मानी जाती है। दलित कविताएं पहले फुटकर कविताएं थे,लेकिन अब खण्ड काव्य और महाकाव्य जैसे ग्रंथ दलित समस्या को आधार बनाकर लिख रहा है।आज हिंदी दलित कविता एक लंबी यात्रा तय कर चुकी है।दलित कविता में आक्रोश है,प्रहार है और इसमें केवल विद्रोह ही नहीं सृजन भी होती है। भारतीय समाज के दलित जीवन को यथार्थ रूप में जनता के सामने प्रस्तुत करने में दलित कविता की भूमिका महत्वपूर्ण है।हिंदी दलित कविता आज साहित्य में चर्चा के केंद्र में है। सड़ी – गली मान्यताओं व परंपराओं के बंधन की जंजीर को तोड़कर फेंकना भी दलित कवि चाहते हैं।
दलित साहित्यकारों का मुख्य उद्देश्य बाबा साहब अम्बेडकर के चिंतन के आधार पर दलित समाज को सुशिक्षित और संगठित करना है। दलित लेखक किसी समूह या किसी जाति विशेष ,संप्रदाय के खिलाफ नहीं है, वे हमेशा व्यवस्था के विरुद्ध है।दलित साहित्य के क्षेत्र में डॉ.देवेंद्र दीपक का पहचान उदीयमान दलित कवि के रूप में बनी है। समकालीन हिंदी साहित्य में दलित साहित्य धारा को प्रखर बनानेवाला कवि व दलित चिंतक डॉ. देवेंद्र दीपक दलित साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। उनकी दलित चेतना हमेशा प्रासंगिक प्रतीत होती है।सामाजिक परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उनके रचनाकर्म में सर्वत्र देखने को मिलती है।‘सूरज बनती किरण’,’मास्टर धरमदास’,’हम बौने नहीं’, ‘बंद कमरा: खुली कविताएं’, ‘प्रश्न की यात्रा ‘ आदि उनकी प्रमुख कविता संग्रह हैं।उनके द्वारा संपादित काव्य संग्रह है ‘ छंद प्रणाम ‘। ‘ कुण्डली चक्र पर मेरी वार्ता ‘ और ‘ विचरणा वीथिका ‘ दोनों उनकी प्रमुख समीक्षाएं है।
‘ चिन्ता ‘ देवेंद्र दीपक की प्रमुख दलित कविता है।
“ हमारे हिस्से कभी
बसंत नहीं आया
तुम्हारे हिस्से कभी
पतझर नहीं आया
प्रकृति के गतिचक्र को
भारत की धरती पर
यह क्या हो गया है?
भारत में उसे आज
मानव से अधिक
उसके वर्ण की चिन्ता है।“
यहां कवि कहते है कि सवर्णों के जीवन में बसंत आ गए है,लेकिन दलितों के जीवन में बसंत नहीं आए,सिर्फ पतझर ही है। इसके बिना और कोई ऋतु नहीं आते है।यहां कवि बसंत को सुख और पतझर को दुख के प्रतीकों के रूप में मानते हैं। कवि कहते है कि हमें इससे कभी नहीं मुक्ति मिलेगी क्योंकि हमारे भारत के लोग वर्ण व्यवस्था के भेदभाव में डूब गए है।आज उच्च वर्ग के लोगों को अपना जिंदगी आराम से जी सकते है।लेकिन दलितों के जीवन में अब तक कोई परिवर्तन या विषमता को प्रकृति के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है।
आज भारत के बदलते परिवेश में भी दलितों का कोई खास प्रगति देखने को नहीं मिला है। आज़ाद भारत के ७५ साल बाद भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी दलित आजा़द भारत का एक शोषित वर्ग ही है।पौराणिक काल से लेकर आज के ज़माने में भी दलित एवं निम्न वर्ग की वर्ण व्यवस्था की समस्या मौजूद है। सनातन ग्रंथों में जैसे मनुस्मृति आदि में सूचित क्षत्रिय,ब्राह्मण ,वैश्य,शूद्र ऐसी वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही आज भी हमारे भारत के लोग एक दूसरे से व्यवहार करते है।लोगों के मन में हुई इसी वर्ण – व्यवस्था की अंधकार को कवि ने इस कविता के द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत किया है।साथ ही साथ कवि ने यह संदेश भी देता है कि ऋतु तो बदलना चाहिए अर्थात् लोगों की मानसिकता में बदलाव आना जरूरी है।
अस्पृश्यता समकालीन समय में एक अजीब विचार है और वह अतीत की बात नहीं क्योंकि अब भी मौजूद है।दलित समाज की अस्पृश्यता की समस्या को प्रस्तुत करनेवाली डॉ. देवेंद्र दीपक की दूसरा प्रमुख दलित कविता है ‘ प्रहार ‘
“ पहले दिन
तुमने एक पत्थर को शब्द की तरह
हवा में उछाला
और मेरे टखने पर दे मारा
मेरी गति घायल हो गयी !
दूसरे दिन
तुमने एक शब्द को पत्थर की तरह
हवा में उछाला
और मेरी चेतना पर दे मारा
मेरी मति घायल हो गयी!”
इस कविता के अंदर कवि ने दलित समाज पर हुए शारीरिक और मानसिक प्रहार की बात कही है।और इसके माध्यम से कवि अस्पृश्यता की गंभीर समस्या को हमारे सामने रखा है।प्रजातीय भावना का विकास ही अस्पृश्यता का कारण बना है।वह किसी- न- किसी रूप में आज भी बनी हुई है। अर्थात् अस्पृश्यता के नाम पर जो अत्याचार दलितों पर किए जाते थे,वे सब आज भी ज़ारी है।
“ और तीसरे दिन से
मैं पढ़ाई में तुमसे पीछे हूं
और दौड़ में भी
तुमसे आगे नहीं निकल पाता!!”
कवि यह बताना चाहता है कि पढ़ाई और दौड़ में आगे रहने के बावजूद भी एक दिन अस्पृश्यता नमक पत्थर से उच्च वर्ग ने मार डाला तब से हमारी या दलित वर्ग की गति धीमी हो गई और पढ़ाई में भी पीछे हो गया।समाज ने जिस तरह दलितों के प्रति घृणा का व्यवहार किया है और भेदभाव दिखाया है,उसी के बारे में कवि चिंतित है।सवर्ण वर्चस्व के समाज में दलित कुछ भी करने पर भी उन्हें हमेशा उच्च वर्ग के अधीन रहना पड़ता है।छुआछूत के कारण हुए यह प्रहार दलितों को हमेशा पिछड़ा वर्ग बनाते है।
‘ अतिरेक ‘ डॉ. देवेंद्र दीपक की एक अन्य प्रमुख दलित कविता है।इस कविता में कवि कहते है कि –
“ हम आदमी हैं
तो सिर्फ इसलिए
कि हम आदमी जैसे दिखते हैं
आदमी के लिए जो नहीं था काम्य
हमने घृणा का वह
अतिरेक देखा है
व्यतिरेक देखा है। “
कवि बताते है कि जो आदमी में घृणा का अतिरेक या बढ़ती घृणा देखते है वह अछूत है।इस कविता के अंर्तगत आधुनिक जीवन में व्याप्त दलित विसंगतियों को चित्रित किया है। लोगों की काली मानसिकता पर आज भी बदलाव नहीं आया है।दलित या नीचे वर्ग होने की वजह से निम्न वर्ग के लोगों को समाज हमेशा अछूत मानकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग किया है।वर्ण व्यवस्था के कारण दलितों का सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न हुआ है।अपरिवर्तनीय सामाजिक मानदंडों और व्यवहार के कारण आज भी समाज के अधिकांश लोग दलितों की उन्नति नहीं चाहते है। प्रस्तुत कविता समाज में रचे – बसे जातिवाद की भयावह स्थितियों से संघर्ष करने के साथ – साथ समाज में घृणा की जगह प्रेम की पक्षधरता दिखाती है।मनुष्य होते हुए भी दूसरे मनुष्य को उसकी जाति के आधार पर उपेक्षित दृष्टि से देखते है।
कवि इस बात पर बल दिया है कि परंपरावादी भारतीय मानसिकता को वर्णवादी दायरे से बाहर निकला है।कवि ने सदियों से चले आ रहे जातिगत वर्णभेद की संस्कृति नकारते है,जो मनुष्य और मनुष्य के बीच दीवार खड़ी की है। डॉ. देवेंद्र दीपक जी ने दलितों या वंचितों को अपनी आवाज़ प्रदान की हैं।दलितों को समाज व्यवस्था में सबसे पिछड़े वर्ग रखने के कारण न्याय,शिक्ष,स्वतंत्रता तथा समानता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा कवि ने दलित वर्गों के लिए भारतीय समाज की विवेचन व्यवस्था को तोड़कर समतल की राह बनाने की महत्वपूर्ण काम किया है।
कवि कहते है कि यहां घृणा का अतिरेक हुआ है।निम्न वर्ग होने के कारण समाज के सवर्ण वर्ग उनसे भेदभाव के साथ व्यवहार किया है।दलितों को मनुष्य के रूप में जीने का हक को छू लिया है।इंज़ानों से वंचित समुदाय के दर्द इसमें प्रतिफलित होती है ।कवि ने मानवाधिकार से वंचित एक बड़े परिवार के दुःख के रूप में दलितों की इसी दुरवस्था को प्रस्तुत किया है।आदमी के रूप होने के कारण सिर्फ उन्हें आदमी जैसा मानते है।
कवि कहते है कि सभी मानव है। संसार में सभी प्राणियों को स्वतंत्र रूप से जीने का हक है।संदेश के रूप में कवि हमसे यह बताते है कि,इस तरह की घृणा ,भेदभाव आदि को छोड़कर बराबरी,मान्यता,स्नेह,इंज़ानियत के साथ व्यवहार करना है।इस कविता के माध्यम से कवि ने दलित मुक्ति का कामना दिखाई देता है।
कहा जा सकता है कि समय परिवर्तन होने के बाद भी दलितों के जीवन में पर्याप्त परिवर्तन नहीं हुआ है।वे हमेशा पिछड़ा ही रहते है।आज भी दलित जाति को अशिक्षा,शोषण,छुआछूत आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है।लेकिन डॉ. देवेंद्र दीपक ने एक हद तक उन्हीं समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया है और करते रहते है।आज दलित वर्ग समाज में जिस प्रकार शोषित,पीड़ित एवं असहारा बन गई है,उसका वास्तविक चित्रण को डॉ. देवेंद्र दीपक ने अपनी कविताओं के द्वारा व्यक्त किए है। डॉ.देवेंद्र दीपक ने अपनी दलित कविताओं के माध्यम से समाज को दिशा प्रदान करने का कार्य किया है और ये कविताएं दलित समाज का आइना है।इसमें अभिव्यक्त सारी समस्याएं आज भी प्रासंगिक है।
धन्या. एस,
शोधार्थी,
श्री शंकाराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी,
केरल।