May 21, 2023

78. नारी-विमर्श : अनामिका की कविताएं – अनामिका शिल्पी

By Gina Journal

नारी-विमर्श : अनामिका की कविताएं

      शोध-प्रज्ञा   :-  अनामिका शिल्पी (हिन्दी विभाग), पटना विश्वविद्यालय, पटना

      शोध-निर्देशक :-  डॉ कुमारी विभा, एसोसिएट प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) हिन्दी विभाग,

                            पटना कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय, पटना 

शोध सार :  

        नारी-विमर्श एक आधुनिक विमर्श है, जिसका उद्येश्य समाज में उपस्थित स्त्री-पुरुष के मध्य सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक भेदभाव के बीच नारी – अस्मिता को स्थापित करना है। यह नारी के लिए अवसर की समानता सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी में समानाधिकार, नारियों की आर्थिक मजबूती अधिकार व स्वतंत्रता के प्रति वैचारिक एवं संवेदनात्मक रूप से प्रतिबद्ध व गतिशील विमर्श है ।

  आधुनिक हिन्दी कवयित्रियों में अनामिका का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है। नारी-जीवन की पीड़ा, घुटन, तनाव, आशा-निराशा की अभिव्यक्ति इनके सम्पूर्ण साहित्य में परिलक्षित होती है। अनामिका का नारीवादी चिंतन रचनात्मक है, वे पितृसत्तात्मक वर्चस्वता से उत्पन्न वर्जनाओं के प्रति असहमति प्रकट करती हैं। कारण यह है कि इसी पितृसत्तात्मक सोच व व्यवस्था ने पुरुष और नारी के मध्य प्रधान एवं गौण स्तर को स्थापित किया।

बीज शब्द : नारी अस्मिता, पितृसत्तात्मक, वर्चस्वता, रचनात्मक, नारीवादी चिंतन।

नारी-विमर्श : अनामिका की कविताएं  

 नारी-विमर्श के माध्यम से नारी-जीवन के विभिन्न पहलुओं यथा- पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्तर पर भागीदारी एवं समाज, संस्कृति, धर्म, राष्ट्र आदि में उसके स्थान व महत्व को स्थापित करने का प्रयास किया गया है। नारी-विमर्श का उद्येश्य नारियों में चेतना, आत्मविश्वास और साहस जगाना है, जिससे वह अपने अस्तित्व को स्थापित कर सकें और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहे। नारी-विमर्श पितृसत्तात्मक सोच को नकारकर नारी-पुरुष की समानता को महत्व देता है। यही कारण है कि समकालीन समय में नारी-विमर्श साहित्य के केंद्र में रहा है।

     कवयित्री अनामिका ने काव्य के साथ ही साहित्य की अन्य विधाओं में भी रचनाएँ की हैं। नारी-स्वातंत्र्य की पक्षधर अनामिका का सम्पूर्ण साहित्य नारी की संवेदनात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। इनकी कविताओं में नारी की अस्मिता, उसकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्वातंत्र्य की मांग तो है ही, साथ ही रुग्ण परंपराओं के प्रति विद्रोह के स्वर एवं पितृसत्तात्मक मानसिकता व सोच के बदलने का आग्रह भी सर्वत्र दिखाई देता है। इनकी कविताएं समाज में संतुलन व समानता की पक्षधर हैं।

     अनामिका कहती हैं-“स्त्री समाज एक ऐसा समाज है, जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहां कहीं दमन है-चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है-उसको अँकवार लेता है। बूढ़े-बच्चे-अपंग-विस्थापित और अल्पसंख्यक भी मुख्यतः स्त्री ही हैं-यह मानता है।”1 अनामिका वृहत्तर समाज की गति व विडंबनाओं को एक स्त्री की नजर से देखना और परखना चाहती है।

     अनामिका का प्रथम काव्य-संग्रह ‘शीतल स्पर्श एक धूप को’(1975) तब प्रकाशित हुआ जब वह स्कूल में 10वीं की छात्रा थीं। इस संग्रह की शुरुआत में कवयित्री लिखती हैं- “सृजन की पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति की ललक तो होती ही है। अनायास ही, अवश्य ही यह ललक पूरी कर पाती हुँ, इसका तोष है।”2 इस संग्रह की लगभग सभी कविताएं प्रकृति से संपृक्त है। प्रकृति और मानव के  मध्य के संबंधों को दर्शाते हुए, प्रकृति का मानवीकरण करती हैं, जहां प्रकृति एक चैतन्य रूप धारण कर लेती है। सद्यस्नाताः गृहिणी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवयित्री कहती हैं– “तुहिन-कणों से सद्य स्नाताः

                            नभ की गृहिणी ।

                            सिंदूरी है माँग क्षितिज की

                              तेरी स्वर्णिम टिकली तरणी ।”3

इसी प्रकार स्त्रियों के लिए सौभाग्य के प्रतीक मंगलसूत्र के बिखरने को विशाल नभ से जोड़ती हुई कहती हैं- “मंगलसूत्र किसी का टूटा,

                         बिखरे मनकों से तारे ।

                         क्षितिज-मांग से उसकी फिर

                         सिंदूर पुछे गया ।”4

  अनामिका की कविता गंभीर-गहन अर्थवता को दर्शाती हैं। इनकी कविताओं में मध्यम वर्ग की नारियों की पीड़ा, संघर्ष एवं भावनाओं का चित्रण हुआ है, परंतु कहीं भी उसे दयनीय रूप में नहीं चित्रित किया गया है, अपितु वे संघर्ष में भी अदम्य जिजीविषा का परिचय देती हैं। 1979 में आई ‘गलत पत्ते की चिट्ठी’ काव्य-संग्रह में भी प्रकृति से संपृक्त कविताएं हैं। अनामिका प्रकृति की तरह ही कवि मन को विस्तार देना चाहती हैं। नीलगगन के समान विस्तार चाहती हैं, उसी का आह्वान है- ‘मन इधर उड़ा,मन उधर उड़ा’-

                  “तुलसी-चौरों के इर्द-गिर्द

                  कब तक मंडराएगा कोई?

                     विस्तार बड़ा !

                  विस्तार बड़ा देगा उधार

                  देगा उधार यह नीलगगन ।”5

एक स्त्री का जीवन भी इसी प्रकार का विस्तार चाहता है,अपनी अस्मिता का विस्तार। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए कवयित्री साँझ को गर्भिणी स्त्री सी बताती हैं, कविता ‘पीली साँझ’ की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

                  “ताल के शैवाल से बचती हुई / निकली नहाकर

                   गर्भिणी-सी-साँझ –

                   बोझिल पाँव, पीली औ प्रसन्न ।”6

     ‘समय के शहर में’ नामक काव्य-संग्रह में संकलित कविताओं में विषय की वैविध्यता है, परिवार, समाज, प्रकृति, वैचारिकता एवं भाव-प्रवणता भी है। इस संग्रह की कविताएं छः खंडों में विभाजित हैं। इसमें ‘बीमार बच्ची का एकालाप’ अत्यंत संवेदनशील कविता है, इस कविता के माध्यम से हॉस्टल में रहने वाली लड़की के दर्द को व्यक्त किया गया है, उसके पिता उसे बाकी लड़की के पिता समान फोन नहीं करते, मिलने नहीं आते, पिता ने क्यों उसके साथ कट्टी कर रखा है – “इतनी सारी भूले मैंने की –

        पापा ने कभी तो नहीं डांटा,

        कभी-कभी ही उदास आँखों से देखा बस-

        कैसे मैं क्या कर दूँ , पापा अब –

        कैसा प्रायश्चित चाहिए,

        साँसों के गेट से टिकी हुँ मैं,

        छोटी-सी एक लिफ्ट चाहिए ।“7

   ‘बीजाक्षर’ काव्य-संग्रह में नारी-जीवन की व्यथा, प्रेम, मैत्री, आम-आदमी का चित्रण किया गया है। दुनिया में एक औरत के जैसा दिल किसी का नहीं होता, परंतु उसका दुःख भी अधिक है – “सड़क की तरह नेकदिल औरत

                        दुनिया में कोई नहीं होता,

                        बहुत बड़ी है इसकी गोद

                        और बहुत नमकीन

                         होठों के ऊपर की धूल ।

                         पैर सड़क पर, आदमी के वजूद का

                         सबसे प्रामाणिक,

                          हस्ताक्षर है ।”8

     कवयित्री नारी-मन की विशालता, उसकी पीड़ा, वेदना एवं साहस को अभिव्यक्त करती हैं। ‘अनुष्टुप’ काव्य-संग्रह के विषय में केदारनाथ सिंह लिखते हैं- “……..इस संग्रह की कविताएँ पाठकों के भीतर एक नई कलात्मक पर्युत्सुक्ता जगाएगी और साथ ही नए स्त्री-लेखन के प्रति एक गहरी सृजनात्मक दृष्टि प्रदान करेगी।”9 इस काव्य-संग्रह में बहुत-सी कविताओं की रचना नारी को केंद्र में रखकर की गई है, जिनमें प्रमुख है- कोहबर, पत्नी, चौक, चिट्ठी लिखती हुई औरत, एक औरत का पहला राजकीय प्रवास, रिश्ता, सेफ्टी पिन, दादी इत्यादि। इस काव्य-संग्रह के वक्तव्य में अनामिका लिखती हैं –“इस कठिन समय में जब समय से स्थान, देह से मन, समष्टि से व्यष्टि विच्छिन्न हो चला है (नाभकीय ताल की) उनकी आपसी पकड़ छूट गई है और ‘आकाश से धरती की बंद है बातचीत’ कविता चाहती है संवाद- आत्मा का आत्मा से, प्रिय का प्रिय से, कटु का मधु से, कल्पना का यथार्थ से, शिल्प का कथ्य से, इंद्रियों का इंद्रियों से, सुख का दुःख से, रूप का अरूप से, भाव का रस से, अतीत का वर्तमान से, परंपरा का प्रयोग से-मनुष्य का मनुष्य से।”10 इस प्रकार अनामिका कविता के माध्यम से संवाद चाहती, जहां सभी संवाद कर सकें और जीवन को एक नई दिशा मिल सके। यही कारण है कि उनकी कविताएं संवाद करती हैं- हर एक समस्या पर, नारी जीवन की विषमताओं पर, उसकी अस्मिता के अस्तित्व पर, नारी-जीवन की सार्थकता और महत्व पर। नारी की निर्णयात्मक बुद्धि एवं समय सूचकता की प्रशंसा करते हुए कवयित्री कहती हैं-

                “बुद्धिमती थी सीता !

            शोक के महाकाश से सोना बरसाकर

               राम को दिखाया था रास्ता !

               सिद्ध किया था अपने ढंग से –

                लापता लोग नहीं होते

                  पूरी तरह लापता ।”11

   इस प्रकार अनामिका नारी-मन की सूक्ष्मता को भी बखूबी चित्रित करती हैं। नारी के विविध गुण धैर्य, बुद्धि, सहनशीलता, सृजनात्मकता नारी के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण हैं, जो कवयित्री अपनी कविताओं में दर्शाती हैं।

   ‘चौका’ शीर्षक कविता में नारी के गृहिणी रूप को चित्रित करती हुई, वह कहती हैं- गृहस्थी के ये सारी वस्तुएं- चौका, सिंक, बेलन, चूल्हा, चूल्हे की राख आदि, नारी के ‘अन्तर्जगत से उसके बहिर्जगत को ‘कंसीटों’ के झटके से जोड़ता है।’तब        कवयित्री कहती हैं – “वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी । …………………

                 रोज सुबह सूरज में

                 एक नया उचकुन लगाकर

                 एक नयी धाह फेंककर

                 वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी ।”

     नारी का सम्पूर्ण जीवन परिवार के प्रति समर्पित होता है। पृथ्वी जिस प्रकार अनेक संसाधनों से हमें पूर्ण करती है, उसी प्रकार नारी भी गृहस्थी की बागडोर संभालकर परिवार, समाज एवं देश के नव-निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इन सब में कहीं उसका स्वंय का अस्तित्व खो सा जाता है, कवयित्री कहती हैं, पुनः स्त्री तलाशती है – “अपने ही वजूद की आँच के आगे   

                              औचक हड़बड़ी में

                              खुद को ही सानती,

                              खुद को ही गूँधती हुई बार-बार

                              खुश है कि रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी।”12  

अतः अपने जीवन को समर्पित करके तथा परिवार के पोषण के लिए सम्पूर्ण सृष्टि के पोषण हेतु वह अर्पित है ।

      ‘कविता में औरत’ काव्य-संग्रह में अनामिका लिखती हैं- “स्त्री-आंदोलन पितृसत्तात्मक समाज में पल रहे स्त्री-संबंधी पूर्वग्रहों से पुरुषों की क्रमिक मुक्ति असंभव नहीं मानता। दोषी पुरुष नहीं, वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुषों को लगातार एक ही पाठ पढाती हैं कि स्त्रियाँ उनसे हीनतर हैं, उनके भोग का साधन-मात्र। आंदोलन की सार्थकता इसमें है कि वहाँ-वहाँ उँगली रखे जहाँ-जहाँ मानदंड दोहरें हैं; विरूपण, प्रक्षेपण, विलोपन (डिस्टार्शन, प्रोजेक्शन, एबोलिशन) के तिहरे षड्यन्त्र स्त्री के खिलाप लगातार कारगर हैं, जिनसे निस्तार मिलना ही चाहिए और सारा संघर्ष इसी बात का है।”13  इस प्रकार कवयित्री ने निर्भीक रूप से नारियों की समस्याओं पर, स्त्री-असमानता के व्यूहात्मक यथार्थ, प्रतिगामी संत्रासों से गुजरती नारियों की इस खुरदुरे यथार्थ को ‘कविता में औरत’ में चित्रित किया है।

   ‘चिट्ठी लिखती हुई औरत’ में कवयित्री ने नारी-जीवन के कठिन सफर को दर्शाने का प्रयास किया है, वे कहती हैं- ‘इतना उनके भीतर क्या है, जो शताब्दियों से संचित है और जिसकी टीस आज भी है,’ जिसका आकार द्रौपदी की उस साड़ी के समान है, ना खत्म होने वाला । पुनः कवयित्री नारी को पानी और मिट्टी सदृश्य बतलाती हैं, एक जो जीवन प्रदान करता है, दूसरा नव-सृजन करता है, परंतु दोनों का कोई ओर-छोर नहीं होता, नारी भी ऐसी ही है, जीवन-दायिनी, नव-सृजन करने वाली । कवयित्री मानती हैं ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है ‘नारी’ –

                           “पानी और मिट्टी

                    खुद एक धारावाहिक चिट्ठी ही तो हैं

                           ईश्वर की –” 14

     अनामिका कहती हैं –“मध्यमवर्गीय स्त्री का अन्तर्जगत उसकी अच्छी-बुरी स्मृतियों और सच्चे-झूठे सपनों से भरी एक ऐसी सन्दूकची है, जिस पर अगरधत्त भाव से पालथी मार बैठा उसका बहिर्जगत कभी लूडो खेलता है, कभी होमवर्क  करता है। बहिर्जगत इतना तो समझता है कि अंदर कुछ है;…..”15  

    तात्पर्य यह है कि स्त्री के अन्तर्जगत में अनवरत कुछ-न-कुछ चलता रहता है, जिसे वह बहिर्जगत से जोड़ना तो चाहती है,परंतु जोड़ नहीं पाती, क्योंकि वह उन सभी बिखरे टुकड़ों को मन के भीतर ही जमा करती जाती है।उसके मन की ये क्रिया चलती ही रहती है – “मैं एक दरवाजा थी,

                         मुझे जितना पीटा गया

                         मैं उतनी खुलती गई”

क्योंकि अनवरत चल रहा है एक बृहत्चक्र मन के भीतर, परंतु वह सब कुछ बुहारकर – “सृष्टि के सब टूटे बिखरे कतरे जो

         एक टोकरी में जमा करती जाती है

           मन के कहीं भीतर ।”16  

   नारी-मन ऐसा ही होता है अपनी वेदना, पीड़ा, घुटन, संत्रास सब छुपा लेती है मन के भीतर । ‘अभ्यागत’ कविता में स्त्रियों के जीवन की विषमताओं का उल्लेख करते हुए कवयित्री कहती हैं – “रोज निकाला जाता है मुझको

                          रोज केंचुए की तरह

                                      गुड़ी-मुड़ी हो

                 फैल जाती हूँ फिर से !

                 वे कहते हैं और कहते हैं ठीक –

                 अपनी औकात जाननी चाहिए,

                 पैर उतने पसारिए

                            जितनी लंबी सौर हो !”17

तात्पर्य यह है कि स्त्रियों का जीवन एक बंधी लीक पर ही चलते रहने का आग्रही होना चाहिए, जितनी लंबी सौर हो । इस बंधी हुई लीक को तोड़ने पर उन्हें उनकी वास्तविक औकात दिखा दी जाती है, वह सोचती है – इससे ज्यादा इसकी क्या होगी सरहद ? पिता के घर से पति के घर तक, परंतु इन दोनों ही घरों में – ‘कौन घर होता हुआ देखा “अपना”, उसके लिए तो दोनों ही पराए हैं। ‘चौदह वर्ष की दो सेक्स वर्कर्स’ नामक कविता में कवयित्री ने उन बच्चियों के जीवन को दर्शाया है, जो बेच दी जाती, पैसों के लिए, जिनका बचपन छिन लिया जाता है, तब वो बच्ची पूछती है प्रश्न – “अंकल, तुम्हारे भी बेटी है ?………..

                       वह भी मेरे-जैसी मजेदार है क्या-बोलो तो ।”18

    ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ नामक काव्य-संग्रह में कवयित्री नारी-जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करती हुई, नारी के प्रति पूर्ण संवेदना व्यक्त करती हैं। साथ ही नारी-दृष्टि से इस बृहत्तर समाज की क्लिष्ट विडंबनाओं को उभारने का प्रयास करती हैं। ‘बेजगह’ कविता में कवयित्री लिखती हैं – “अपनी जगह से गिरकर

                                     कहीं के नहीं रहते

                                     केश, औरतें और नाखून।”19

    इस प्रकार नारी का स्थान केश और नाखून के सदृश्य बतलाया गया है। ‘दूब-धान’ नामक काव्य-संग्रह में कवयित्री कहती हैं- “इन कविताओं में एक आधुनिक भारतीय स्त्री अपने भीतर की खिड़की से बहकर आता संगीत सुनती है, मोहक विलम्बित स्वरों में बहता हुआ यह संगीत बेताबियों के तिलस्म की तरह पाठक तक संप्रेषित होता है।”20  इस काव्य-संग्रह के केंद्र में भी स्त्री है। स्त्री के जीवन की विषमताएं हैं। ‘गृहलक्ष्मी’-3 नामक कविता में कवयित्री कहती हैं –

                       “मुझमें है बंद पड़ी एक दीवार-घड़ी भी !

                        वो भी हूँ मैं ही !

                        मेरी चाभी गायब है !”21   

     निष्कर्षतः अनामिका का काव्य-चिंतन बहुआयामी है, जिसमें प्रकृति-विषयक चिंतन से लेकर स्त्री-जीवन की पीड़ा, तनाव, संत्रास, मानसिक शोषण, उस पर हो रहे अन्याय व अत्याचार एवं स्त्री के घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी को दर्शाया गया है। इनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण करती हैं। संवेदनशील कवयित्री होने के कारण उनकी संवेदना एवं चिंता समाज के उपेक्षित, पीड़ित एवं शोषितों के प्रति है। इनके काव्य का मूलस्वर-केन्द्रीयभाव नारी-विमर्श है। अनामिका नारी-विमर्श की श्रेष्ठ चिंतक, संवेदनशील कवयित्री हैं।

संदर्भ-ग्रंथ :

  1. स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, अनामिका, वाणी प्रकाशन, पृ – 23,24
  2. शीतल स्पर्श एक धूप को, अनामिका, अमिताभ प्रकाशन, 1975, पृ – 3
  3. पूर्ववत, पृ – 2
  4. पूर्ववत, पृ – 64
  5. गलत पत्ते की चिट्ठी, अनामिका बिहार ग्रंथ कुटीर, पटना, प्र.स. पृ – 1
  6. पूर्ववत, पृ. – 16
  7. समय के शहर में, अनामिका, पराग प्रकाशन, दिल्ली, पृ. – 28
  8. बीजाक्षर, अनामिका, भूमिका प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. – 20
  9. अनुष्टुप, अनामिका, किताबघर, नई दिल्ली, पृ. – 2,3
  10. पूर्ववत पृ. -7
  11. पूर्ववत पृ. – 24
  12. कविता में औरत, अनामिका, वाणी प्रकाशन, पृ. – 50
  13. पूर्ववत पृ. – 15
  14. पूर्ववत पृ. – 39
  15. पूर्ववत पृ. – 46
  16. पूर्ववत पृ. – 46
  17. पूर्ववत पृ. – 111
  18. पूर्ववत पृ. – 115
  19. खुरदुरी हथेलियाँ, अनामिका, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. – 15
  20. दूब-धान, अनामिका, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. – 2
  21. पूर्ववत पृ. – 68