May 21, 2023

77. समकालीन हिंदी साहित्य में दलित विमर्श – श्रीमती आपी लंकाम     

By Gina Journal

                       समकालीन हिंदी साहित्य में दलित विमर्श 

    श्रीमती आपी लंकाम

    शोध सार :                                                               

समकालीन साहित्य की प्रकृति पिछली साहित्य की प्रकृतियों  से बहुत कुछ भिन्न और विशिष्ट  है । यह साहित्य , आधुनिक हिंदी साहीतय  के विकास में वर्तमाण काव्यांदोलन है । इस साहित्य  में वर्तमान का सीधा खुलासा है । इसे पढ़कर वर्तमान काल का यथार्थबोध हो सकता है । क्योंकि इसमें जीते, संघर्ष करते, लढ़ते , बौखलाते ,तड़पते-गरजते तथा  ठोकर खाकर सोचते वास्तविक आदमी का परिदृश्य है । समकालीन साहित्य  मानवतावादी है । पर इसका मानवतावाद मिथ्या , आदर्श की परिकल्पनाओ पर आधारित नहीं है ।  समकालीन साहित्य का लक्ष्य दलित , आम-आदमी और समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है । जीवन और अमूर्त धारणाओ के स्थान पर सताए हुए लोगों  का विवेचन और विद्रोह है । यह अधिकांशत : दलित वर्गों की संघर्ष और यथार्थबोध साहित्य है । इस आंदोलन की साहित्य संयम , संक्षिप्तता और समकालीन की माँग करती है  ।  इन साहित्य द्वारा दलितों के वास्तविक जीवन , उनकी यातनाओं पीड़ाओं और उनकी जो उपेक्षा हुई , उसकी अभिव्यक्ति हुई है। यह समाज में हो रहें परिवर्तनों का परिणाम है । जिसकी प्रेरणा है समता , स्वतंत्रता , बंधुता एवं अन्याय के विरुद्ध न्याय मिल सकें । इस दलित साहित्य से समाज में चेतना का निर्माण हो रहा है ।

बीज शब्द : दलित ,मानवतावाद , यथार्थ , संघर्ष  , पीड़ा , अन्याय

( 300 शब्द )

हिन्दी साहित्य में ‘ नई कहानी ‘ के बाद की साहित्य को समकालीन साहित्य की संज्ञा दी गई है  । समकालीन साहित्य दलितों की व्यथा कथा की सहीतय है ।   समकालीन ‘दलित विमर्श’ तक पहुँचने के लिए अवशयक्त है कि ‘ दलित ‘ शब्द में  निहित अर्थ से साक्षात किया जाए ।

        ‘दलित’ शब्द मूलत: प्राचीन भारतीय वर्ण-व्यवस्था के निम्नातम वर्ग के लिए प्रयुक्त होता है जिसे शूद्र  , श्वपच या दास कहा गया ।  अछूत , हरिजन , अनुसूचित जाति-जनजाति उपेक्षित बहिष्कृत या पिछड़ा वर्ग आदि को दलित का पर्याय माना गया । दलित का शाब्दिक अर्थ  है – कुचला हुआ ।

       दलित विमर्श से अभिप्राय उस साहित्य से है , जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है , अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है , दलित विमर्श उनकी उसी अभिव्यक्ति का विमर्श है । यह कला के लिए कला नहीं बल्कि जीवन और जीवन की जिजीविषा का विमर्श है ।

 दलित अर्थ व्यापक रूप में पीड़ित के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है  दलित शब्द  की व्याख्या :

  1. रामचन्द्र वर्मा के अनुसार : अपने शब्दकोश में दलित का अर्थ लिखा है , “मसला हुआ , मर्दित , दबाया ,रौंदा या कुचला हुआ , विनष्ट किया हुआ ” ।
  2. समाजशास्त्री रवीन्द्रनाथ मुखर्जी के अनुसार :” समाज के सबसे “पिछड़े वर्ग” विशेषण जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति , जनजाति और भूतपूर्व अपराधी जनजातियों के अतिरिक्त आर्थिक – सामाजिक दृष्टि से पिछड़े भी समाहित है ” ।
  3. मराठी रचनाकर गो.कुलकर्णी के अनुसार : “ दलित विशेषण वस्तुत: समाज के सबसे नीचले स्तर के सम्पूर्ण उपेक्षित जन – समूह पर लागू होता है “ ।
  4. डॉ॰ भीमराव अंबेडकर के अनुसार : उनके अपनी पुस्तक “ अछूत : क्यों और कैसे “ में   अछूत वर्ग की उत्पत्ति पर विचार किया है । उनका विचार है कि”  मूल रूप में हिंदुओं और अछूततों का भेद एक दल के आदमियों तथा पराए दलों के छितरे हुए आदमी ही आगे चलकर अछूत कहलाए “ ।

          अंबेडकर दलित साहित्य के पिता / जनक के रूप में माने जाते है , भले ही डॉ॰ अंबेडकर ने कोई रचनात्मक लेखन नहीं किया, अस्पृश्यता के खिलाफ और भारत में दलितों की मुक्ति के लिए उनके संघर्ष ने दलित साहित्य के उद्भाव को सक्षम बनाया ।

 दलित वर्ग समाज का वह वर्ग है , जो सबसे नीचा  माना गया हो या दुखी और दरिद्र हो जिसे उच्च वर्ग के लोग उठने न देते हों , उदाहरण के लिए हैं भारत की अछूत माने जाने वाले वर्ग । भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ॰ अंबेडकार ने उठाया । डॉ ॰ अंबेडकार दलित समाज के प्रणेता है । बाबा साहब अंबेडकार ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक , राजनीतिक  और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की ।

          सूरजपाल चौहान जाने माने दलित काव्यकार हैं । उनका काव्य – संग्रह  ‘क्यों विश्वास करूँ ‘ अंबेडकारवादी दलित चेतना को समर्पित है । उनकी वाणी में मानों दलित चिंतन प्रतीकार की भावना से भर उठा हो :

             फिर मैं तुम्हारे  रचे शब्दों के

                      सीने पर चढ़कर डंका बजाऊंगा

             विजयश्री का क्योंकि अब मैं गूंगा नहीं हूँ  ।

              समकालीन हिन्दी साहित्य मैं दलित चेतना का पूरा चित्रण समाहित हैं ।   समकालीन साहित्य  आज की बदली परिस्थितियों  का सही रूप दिखाती है । यह आधुनिक साहित्य दलितों के विकास में नयी चेतना ,नयी- भावभूमि , नयी सम्वेदना तथा नयी शिल्प की बद्लाव की सूचक  है । यह हमारे ही परिवेश की समाज-संस्कृति की, जीवन –जगत की , स्थिति परिस्थिति से उपजी साहित्य है हमारा देश सन 1947 में स्वतंत्र हुए , तब से लेकर अनेक आम – आदमी चुनाव हुए । राजनीतिक दलों ने ‘गरीबी हटाओ ‘ के अनेक नारे दिए । कुछ छुटपुट उपलब्धियों के अतिरिक्त दलित लोगों को भ्रष्टाचार , बेरोजगारी , प्रदूषण तथा आतंकवाद के सिवाय कुछ नहीं मिला । लोगों का उत्सा और आशा मंद होने लगी ।  राजनीति से जुड़े नेताओं द्वारा किए गए आर्थिक घोटालों के कारण निम्नवर्गों का विश्वास लोकतंत्र से उठने लगा है । दलित कहे जाने वाली इस जन समुदाय को अन्य जीवन उपयोगी सुविधाएँ तो दूर , भरपेट रोटी तक उपलब्द नहीं है । इस त्रासदी का मुख्य कारण है घोर आर्थिक विषमता । आज भी दलित वर्ग अपनी अपरिहार्य आवशयकताओं के लिए थोड़े से अति सम्पन्न लोगों पर निर्भर है जिनका उत्पादन के साधनों पर कब्जा है । वे अति सम्पन्न लोग अपनी शर्तों पर शोषण करते आए हैं । घोर आर्थिक विषमता दलित जीवन का कटु यथार्थ भी है समकालीन कवि अनुभव की इस सच्चाई को महसूस करता है । दलित वर्ग  की व्य्था कथा का इसमें  सच्चा इतिहास है। समकालीन कविता आज के हिंदुस्तान के भीतरी- बाहरी इतिहास राजनीति का यथार्थ प्रतिबिम्ब है । रघुवीर सहाय अपनी कविता ‘ आत्महत्या ‘ में इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए कहते है  –

               मेरे देश के लोगों और नेताओं

               मैं सिर्फ एक कवि हूँ

               मैं तुम्हें रोटी नहीं दे सकता ना उसके साथ खाने के लिए गम

               न मैं मिटा सकता हूँ ईश्वर के विषय में तुम्हारे सभ्रम

               लोगों में श्रेष्ठ लोगों मुझे माफ करो

               मैं तुम्हारे साथ आ नहीं सकता ।

समकालीन साहित्य में कवियों की व्यंग्य आज के जीवन से सम्बद्ध है । सामंती – पूँजवादी – जनविरोधी शक्तियों का विरोध समकालीन कहानी का मुख्य स्वर है । यह साहित्य  सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार भी  है । धूमिल की कविता का व्यंग्य नितांत तीखा एवं मार्मिक    है ।  ‘ मोचिराम ‘ में जातिवादी समाज का यथार्थपरक चित्रण है –

               वह हँसते हुए बोला –

               बाबूजी ! सच कहूँ – मेरी निगाह में

               न कोई छोटा है

              न कोई बड़ा है

              मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ा जूता है

              जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है

समकालीन साहित्य जीवन और समाज के प्रति एक स्वस्थ , सकारात्मक , संतुलित एवं सही दिशा प्रदान की गई है । यह साहित्य स्थितियों के प्रति निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाकर स्वांतंत्र चिंतन की प्रेरणा देती है –

           इसलिए खोज है उन शब्दों की

           जो जटिलताओं और

           अंतर्विरोधों में टिक सकें

           खून-पसीने को सही अर्थ दे सकें

           असल संवेदनाओं का

           तीखा अहसास कर सकें ,

           लेकिन जिनमें छिलके न हों ।

कर्मशील भारती का काव्य – संग्रह ‘कलम को दर्द कहने दो ‘ में दलितों की पीड़ा कि दर्द का जीवंत दस्तावेज़ है । जिसे कवि ने बाल श्रमिकों कि व्यथा को चित्रित किया है । उनकी बाल श्रमिक कविता की पंक्तियाँ इसका सबूत हैं –

          मालिक को संतुष्ट और खुश देखने को

         तपती दुपहरी , कड़कती ठंड और लगातार बारिश में

         दिन भर सामर्थ्य से अधिक श्रम करते – करते

           बाल श्रमिक के कोमल लेकिन अल्पविकसित हाथ

           जो सही माने में ।

           अभी विकसित होना चाहते हैं ।

निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि समकालीन साहित्य सामाजिक बदलाव लाने का आहवान और समाज को गहरे सरोकारों के साथ संवेदनशील बनाने का आहवान करते हैं । इन साहित्यों में आक्रोश है , आग है , लावा है , गुस्सा है , विद्रोह है , साथ साथ संवेदना , मानवीयता और सब्र भी है । न्याय की उत्कट लालसा भी है , तो समानता की तीव्र ललक भी  है । भाईचारे की भावना भी है , तो उसके साथ आदर पाने की चाहत भी है । समकालीन दलित साहित्य से समाज में चेतना का निर्माण हो रहा है । समकालीन साहित्य द्वारा दलितों के वास्तविकता जीवन , उनकी यातनाओं पीड़ाओं और उनकी जो उपेक्षा हुई , उसकी अभिव्यक्ति  समकालीन साहित्य  समाज में हो रहे परिवर्तनों का परिणाम है । जिसकी प्रेरणा है समता , स्वांतंत्रता , बधुता एवं अन्याय के विरुद्ध न्याय मिल सके  साहित्यकारों ने यह स्पष्ट किया है कि आर्थिक असमानता के कारण दलितों में जो छुटपुट आक्रोश दिखाई देता था आज वह संगठित विद्रोह का रूप ले रहा है । यह वोद्रोह दलित जन की जागृत अस्मिता और आत्मविश्वास का प्रतीक है । यह विद्रोह वैविध्यपूर्ण  है । यह अहिंसक प्रतिरोध से लेकर वर्ग – संघर्ष और हिंसक क्रांति तक फैला हुआ है । इस प्रकार समकालीन साहित्यकारों ने बहुत ईमानदारी से समाज के दलित और निम्न  वर्ग के प्रति अपनी सदाशयता और पक्षधरदाता की प्रतीति कराई है ।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. समकालीन हिन्दी कहानी : प्रकृति और परिदृश्य , याधुनाथ सिंह
  2. समकालीन हिन्दी कहानी : सं ॰ डॉ॰ वेदप्रकाश अमिताभ , दिनेश पालीवाल
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास , मिश्रा एवं पांडे , भारती भवन पुब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिव्यूटेर्स ISBN – 81 – 7709 – 114 – x
  4. समकालीन हिन्दी कहानी में दलित विमर्श , डॉ ॰ मधुसूदन शर्मा , नागरी लिपि प्रकाशन

श्रिमती आपी लंकाम (सहायक प्रोफेसर)

 इंदिरा गांधी शासकीय महाविद्यालय,

 तेज़ू, लोहित, अरुणाचल प्रदेश ।