75. “समकालीन हिंदी कविता में पारिस्थितिकीय से जुडी समस्याएँ” – बीना.भद्रेशकुमार
“समकालीन हिंदी कविता में पारिस्थितिकीय से जुडी समस्याएँ”
बीना.भद्रेशकुमार
प्रकृति माता हैं l प्रकृति के बिना मानवराशि का जीवन असंभव हैं. प्रकृति और पर्यावरण से भारतीय धर्म मुल रूप से जुड़ा हुआ हैं. भारतीय धर्मग्रंथो के अनुसार प्रकृति ईश्वर का पर्यायवाची शब्द हैं l
” ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।”
यह उपनिषद से लिया गया वाक्य हैं. इसमें मानव एवंम प्रकृति का अटूट संबंध का सच्चा प्रमाण हैं. भारतीय और पाश्चात्य संकल्पना मे पर्यावरण को लेकर काफ़ी अंतर हैं l भारतीय परिप्रेक्ष्य मे प्रकृति ईश्वर के समान हैं l यहाँ के जीवन दर्शन मे पंचभूतों का स्थान सर्वोत्त्कृष्ट हैं. उसका विनाश करना अपराध हैं. जब की पाश्चात्य परिवेश मे प्रकृति को उपभोग का साधन समझा जाता हैं. उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों को वैज्ञानिक उपकारणों के माध्यम से अपनाने का प्रयत्न शुरू किया. l आज विश्व की अनेक प्रकार की समस्याओ मे मूल समस्या पर्यावरण की समस्या हैं. साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता हैं यदि वो पृथ्वी, प्रकृति को प्रदूषित करनेवालों कारणों, समस्याओ को प्रकट नहीं कर पाता तो, वो अपने कर्तव्य से पीछे रह जाता हैंl
सन् 1970 के पर्यावरण दर्शन काव्य दर्शन के रूप मे हिंदी की समकालीन कविताओं मे अधिक प्रबल हो गया हैं l उसे पूर्व लिखी गयी रचनाओं मे प्रकृति काव्य मे संकेत के रूप मे दिखाई देती हैं l लेकिन 20 शती मे लिखी गयी कविताओं मे पर्यावरण दर्शन खूब मात्रा मे दर्शनीय हैं।
वर्तमान समय मे हो रहा पर्यावरण का प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का भोगवादी विचारधारा से हनन पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीवो के लिए चुनौती का कारण बन गया हैं l समकालीन जीवन बोध को सच्चे यथार्थ की और मानव जीवन ध्यान आकर्षित करने वाले अनेक कवि सामने आये l
इन कवियों नें पारिस्थिकी से जुडी समस्याओ का कई प्रकार से चिंतन प्रस्तुत किया हैं l जिसमें औद्योगिकरण, बहुमण्डलीकरण, का सबसे बड़ा बोज़ पर्यावरण पर पड़ता हैं। बढ़ती जनसंख्या, नदि और नाले का प्रदूषण, कृषि मे रासयनिक पदार्थो का अनियंत्रित प्रयोग आदि अनेक कारणों से पर्यावरण दुर्बल होता जा रहा हैं। कर्बनिक पदार्थो का अंतरिक्ष मे मलिन हो जाना यह भौमातरीक्ष ताप बढ़ने का कारण भी हो गया हैं। भौमताप बढ़ता हैं जिसके कारण वर्षा कम और इन अनगिणित समस्याओ को उठाकर कविता करने वाले कवि है श्री अरुण कलम, ज्ञानेंद्रपति, वसंत त्रिपाठी, उदय प्रकाश, चंद्रकांत देवताले, स्वप्निम श्रीवास्तव आदि, जिन्होंने समकालीन कविता मे जल, जंगल, जमीन, और पर्यावरण को प्रदूषित करनेवाले तमाम कारणों और समस्याओ कविता मे उभारा हैं।
नदी को माता मानकर पूजा करनेवाली संस्कृति को बढ़ावा देनेवाले इस देश मे आजकल नदी के जल प्रदूषण की समस्या से प्रकृति अधिक मात्रा मे दूषित किया जाता हैं। छोटे-बड़े कारखानों से गन्दा पानी अधिक मात्रा मे बाहर छोड़ा जाता हैं। विज्ञानं का कमाल हैं कि इस तरह के पानी को विभिन्न प्रकार के केमिकलो से मिश्रण उसे शुद्ध कर सके l विकसित राष्ट्रों की जनता इस तरह की प्रदूषण की समस्या से अवगत हैं, और वे इससे छुटकारा पाने मे सक्षम हैं। लेकिन भारत जैसे विकाशशील राष्ट्रों मे लोगों की अज्ञानता से या सरकार की अनास्था से कारखाने से इस तरह के जहरीले पानी को बिना प्रक्रिया के नदी-नालो मे छोड़ जाते हैं। उनके मालिक जानते हैं कि इसकी प्रतिक्रिया जरूर होंगी। इसीलिए वो सबसे पहले हीं देश के सामाजिक, धार्मिक संगठनों को चंदा देकर अपने आप को दानवीर घोषित करते हैं। इस तथ्य की और इशारा करते हुए चंद्रकांत देवताले जी कहते हैं की –
“नदियों को गटर बनाने वाले
दानवीर कहलाये चंदा देकर
भूसा भर स्वाद के के भीतर
पेड़ो की गर्दन काटी जिसने
वे हीं बने मुख्य अतिथि अपने “
(उजाड़े मे संग्रहालय, पृ – 138)
भारत जैसे देश मे आमतौर पर मई और जून से लू चलती हैं। लेकिन इस साल मार्च के महीने से हीं गर्मी अपना प्रकोप दिखानें लग गयी हैंl अगर यह पृथ्वी इसी तरह गरम होती रही तो हम इंसान हीं नहीं इस पर रहनेवाले दूसरे करोडो जीव-जंतु और पेड़-पौधो ख़त्म हो जायेंगे, जबकि इसमें इनका कोई दोष नहीं हैंl वो तो हम इंसानों के कर्म का फल भुगतेंगेl दूसरे जीव इस प्रकृति मैसे इतना हीं लेते हैं, जितने की जरूरत हो, लेकिन इंसानों की इच्छाओ और चाहतो का कोई अंत नहीं हैं।
बढ़ते जाते पृथ्वी के तापमान से भूमि में सूखा, जल की कमी, कृषि उत्पादन के आभाव से भूख जैसी समस्याएँ प्रकट होती हैं। जिसके प्रतिरोध में समकालीन कविता में इसी समस्या का स्वर देखने को मिलता हैं –
“पृथ्वी जल रही हैं,
आकाश सिमट रहा हैं
छलक उठते हैं पहाड़
नदियाँ स्थिर हो गयी हैं
ध्वनियाँ सिर्फ लहकती हुईं साँस मे बच गयी हैं”
मिशाल के तौर पर 2021 मे क्रिप्टोकरेंसी बिटकॉइन की माइनिंग मे जितनी बिजली खर्च हुईं उतनी बिजली थाईलैंड जैसा देश पुरे एक साल मे खर्च करता हैं। इसीलिए हमें समझना चाहिए की जो भी हम करने जा रहे हैं। उसे हमारी पृथ्वी का फायदा होगा या नुकसान ? मनुष्य नें पृथ्वी पर इतना प्रदूषण किया हैं, इतना कार्बनउत्सर्जन किया हैं, कि आज की वैश्विक समस्या बन गया हैंl मानव द्वारा किये गये इन नीच कर्मो के कारण ही पर्यावरण का संतुलन बिगड गया हैं। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जंतु एवं स्वयं मनुष्य के रहने की आवासीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। “बचाओ” नामक कविता मे कवि उदय प्रकाश नें अपने इसी तथ्यों को रेखांकित किया हैं –
” “देखो हिलता हैं पृथ्वी पर,
अमरुद का अंतिम पेड़,
उड़ते हैं आकाश मे,
पृथ्वी के अंतिम तोते,
बताओ सारे विद्वान
में कहाँ पर टांगे हैं,
अपने दादा की मिरजई।”
(बचाओ – उदय प्रकाश)
औद्योगिकक्रांति की शुरुआत हुई तब से अब तक अत्यधिक पर्यावरण मे कार्बनडायोक्साइड की मात्रा तीस फीसदी बढ़ गयी हैं। इसका मतलब हैं कि जितना कार्बनडायोक्साइड इस समय मौजूद हैं, इतना पृथ्वी की आठ लाख साल के इतिहास में कभी नहीं रहा। समस्या इसीलिए और बढ़ गयी हैं, क्योंकिं कार्बनडायोक्साइड को सोखनेवाले जंगल को अंधाधुंध तरीको से काटा जा रहा हैं
विश्व मौसम विकास संगठन का कहना हैं कि व्यापक औद्योगिकरण शुरू होने से पहले मुकाबले अब पृथ्वी का तापमान एक डिग्री बढ़ गया हैं। कई रिसर्च बताती हैं कि 1850 के बाद से लेकर इस सदी तक पृथ्वी का तापमान में डेढ़ डिग्री का बढ़ाव हो सकता हैंl और यह तापमान दो डिग्री बढ़ गया तो मनुष्य बर्बादी के मुहाने तक पहुँच जाएगाl तापमान बढ़नें का नतीजा है कि पृथ्वी के ध्रुव पर बर्फ की चादर पिघल रही हैं। इसका सीधा असर समुद्र मे बढ़ते जल स्तर पर हम देख सकते हैं। 2005 से 2015 के बिच हर साल समुद्र के जलस्तर मे 3.6 मिली मीटर की वृद्धि हुईं हैं। अगर यह यू ही बढ़ता रहा तो दुनियाँ के कई देश और कई शहर समंदर में समा सकते हैं। बढ़ते तापमान की वज़ह से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहें हैं। जो अपने साथ सूखा, बे-मौसम बारिश, बाढ़ और तूफान ला रहें हैंl अतः ऐसी हीं समस्या को मंगलेश डबराल की कविता मे बताया गया हैं, जो इस प्रकार हैं –
“यहाँ बचपन में गिरी थी बर्फ,
पहाड़ पेड़ आँगन सीढ़ियों पर,
उन पर चलते हुए हम रोज़ रास्ता बनाते थे,
बाद में जब मैं बड़ा हुआ,
देखा बर्फ को पिघलते हूए,
कुछ देर चमकता रहा पानी
अंततः उसे उड़ा दिया धूप नें”
(आवाज की एक जगह, पृ – 73)
पारिस्थितिकीय तंत्र में समाहित पशु, पक्षी, पेड़, जीवजंतु, आदि अभी तत्वों के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जीवधारियों से मिलकर बनता हैं। इन सबका पारिस्थितिकी पर उतना हीं समान अधिकार हैं, जितना मानवजाती आज के युग में प्रकृति पर अपना दावा कर रही हैं। थोड़े से समय मे बहुत कुछ पाने की प्रवृति नें मनुष्य नें औद्योगिकक्रांति की शुरुआत कर नये-नये उपकारणों और यंत्रो की ख़ोज की जो, सृजनात्मकता में कम। पर विनाशत्मकता का पर्याय बनकर सामने आया हैंl इस यंत्रिकीकरण का जितना लाभ मानववर्ग को प्राप्त हुआ, तो दूसरी ओर पशु-पक्षी पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ाl जिसमें गौरैया नामक चिड़िया भी एक हैं, जो वर्तमान में अपने अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती हैं। जो विनाश के कगार पर आकर खड़ी हो गयी हैं। कवि उदय प्रकाश ने “अर्जी” नामक कविता में पृथ्वी पर से पलायन होती चिड़ियाँ, पेड़ो पर के घोंसले आदि को अपनी स्मृतियों में दर्शन करते हैं। कवि गाते हैं –
“वर्षो पहले मेरे बचपन में
शिवलिक या मेकल या विंध्य की पहाड़ियों में,
अंतिम बार देखी गयी थी वह चिड़ियाँ,
जिस पेड़ पर बना सकती थी वह घोंसला
विशेषयज्ञ जानते हैं, वर्षो पहले अन्तिम बार
देखा गया था वह पेड़
अब उसके चित्र मिलते हैं पूरा – वानस्पतिक किताबों मे
तने के फोसिल्स संग्रहालयों में…l”
(उदय प्रकाश की ‘अर्जी’ कविता से)
समकालीन कवियों के सामने इन जानवरो को अस्तित्व बनाये रखने की समस्या प्रकट हुईं हैं। स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता “इक्कीसवीं शताब्दी मे हाथी” विशेष महत्वपूर्ण हैं। कवि की चिंता हैं कि इक्कीसवीं सदी में हाथी शायद जीवित नहीं रहेंगे। वे कविता में लिखते हैं कि –
“इक्कीसवीं शताब्दी में क्या वे
जीवित रहेंगे
या उनके सूंड झड़ जाएँगे
या इस नाम का कोई जानवर
नहीं बचा रहेगा पृथ्वी पर
या उसका नाम बदल जायेगा
या वे चिड़िया घर की वस्तु बन जाएँगे”
(मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, पृ – 84 -85)
भागदौड़ भरी मशीनी दुनियाँ में पर्यावरण के प्रदूषण करने की समस्या अत्याधिक बढ़ती जा रही हैं। जिसको दूर करने के लिए आज के राजनेता भी सत्ता में आने के बाद वह भूल जाते हैं कि सत्ता सेवा करने की पवित्र जगह हैं। लेकिन वह अमीर बनने की प्रबल इच्छा में स्वार्थी तथा असंवेदनशील बन जाते हैं। बदलती परिस्थितियाँ पर्यावरण को सबसे अधिक मलिन करती हैं। लेकिन उस पर्यावरण की उस समस्याओं का सबसे ज्यादा मार सामान्य जन-जीवन पर ही पडता हैंl ऐसे राजनीतिज्ञ गाँव और बस्तियों में रहनेवालों के दर्द से मुँह मोड़ लेते हैं। वहाँ की पानी, हवा, धरती में फैले प्रदूषण की समस्या में सत्ताधारियों का ध्यान कभी नहीं जाता हैंl ऐसी स्थित में कवि अपने विरोध को कविता के स्वर में गुंजायमान करता हैं। कवि कहते हैं –
“नामर्दो के सवालों और नामर्दो के जवाबो के बीच
बरसो का गुबंद टूटकर गिर रहा हैं बे आवाज़
धरती पड़ी हुईं हैं बाजारू औरत सी
उनकी निगाहो मे
उनके कानो में सुनाई नहीं पडती कभी
बस्तियों और गावों के बिसुरने की आवाज़ l
आकाश के फेफड़ों में दमा
नदियों के पेट में कैंसर
और हवा की छाती में क्षय के कीटाणु बोकर
देखो वे सौ – पचास हाथी सफ़ेद झूमते
पता नहीं किस जश्नगाह मे जा रहें हैंl “
(आग हर चीज मे बताई गयी थी, पृ – 115)
सारांश :
पारिस्थितिकीय तंत्र का असन्तुलन आज एक विश्वव्यापी समस्या हो गई हैं। समकालीन कविता समय की नब्ज़ पकड़नेवाली कविता हैंl नए युग में अनगिनत समस्याओ के चित्रण के साथ साथ धरती पर मानव के अमंगल क्रियाकलापो का चित्रण भी समकालीन कवि नें पारिस्थितिकी की समस्याओ को बहुत वैचारिक ढंग से अभिव्यकत करने का श्रम करते हैंl समकालीन कविता की खूबी यह हैं कि पर्यावरण और प्रकृति के लिए यहाँ स्थान नहीं बनाया जाता हैं, बल्कि वह काव्य का एक अनिवार्य तत्व बनकर अपना स्थान ग्रहण करती हैं। वर्तमान में इक्कीसवीं शताब्दी में पर्यावरण, मानव का मूल्य, जीवन का संतुलन, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नैसर्गिक सौंदर्य को बचाने के लिए कई आंदोलन और अभियान चलाये जाते हैं, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठीयाँ, सम्मेलनों किए जाते हैl अनेक प्रोटोकॉल-अधिनियम नियमित किये जाते है, फ़िर भी वह क्या बच सकेंगे ? क्या पृथ्वी का अस्तित्व कायम रह सकेगा ? पर्यावरण की समस्याओ का अंत आयेगा ? 1972 से लेकर आज तक अनेकों वैश्विक सम्मेलन आयोजित हुए, पर क्या पारिस्थितिकीय के एक भी तत्व प्रदूषण मुक्त हो पाया है ? नहीं । तो क्या पारिस्थितिकी को लेकर ऐसे ही कार्यक्रम होते रहे, जिससे कोई निवारण नहीं निकल सकता ? समाधान नहीं हो सकता ? आदि प्रश्नों को समकालीन कवि ने कविता में वर्णित किया गया हैं। स्वप्निल श्रीवास्तव कविता प्रश्नांकित किया है –
“इस शताब्दी मे चीजों के
बचाने के लिए अभियान चलाये जा रहें है,
ताज्जुब यह हैं की बचाव की इतनी कोशिशो के बावजूद,
न आदमी बच रहा हैं, न जंगल
परिंदो की बात तो दूर है,
सबसे ज्यादा खतरे में तो आदमी के विचार हैं,
यदि वे नहीं बचे तो कुछ भी
नहीं बचाया जा सकता हैं।”
(मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए – बचाव, पृ -54)
आज की इसी वास्तविक वैश्विक समस्याओं के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए और आनेवाल समय में उसकी भयावह से आगाह करते हुए कहाँ गया है कि –
“धरती पर तीसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो चुका हैl यह युद्ध प्रकृति के खिलाफ हैl आज हम वनस्पति जगत की मृत्यु देख रहें हैl अफ्रीका तो अब मृत्यु के निकट हैl लेकिन अब यही युद्ध भारत, श्रीलंका, दक्षिण एशिया और दक्षिण अमरीका में चल रहा हैl यहाँ विस्तृत मैदान रेगिस्तान मे बदल रहें हैं।” – एडवेर्ड गोल्डस्मिथ.
बीना.भद्रेशकुमार.प्रजापति(शोधछात्रा)
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभविद्यानगर, आणंद, गुजरात