81. पचपन खंभे लाल दीवारें : पारिवारिक जिम्मेदारियों और आर्थिक तंगी के बीच में फंसी स्त्री का दर्द – गीतिका सैकिया
पचपन खंभे लाल दीवारें : पारिवारिक जिम्मेदारियों और आर्थिक तंगी के बीच में फंसी स्त्री का दर्द – गीतिका सैकिया
यह उपन्यास उषा प्रियम्वदा जी का प्रथम और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । कहानियों में जैसे उनकी वापसी कहानी ने एक रुतबा हासिल किया है उसी तरह उपन्यासों में पचपन खंभे लाल दीवारें उपन्यास का भी वैसा ही स्थान है। इस उपन्यास को तात्कालिक व्यापक लोकप्रियता मिली । लेडी श्रीराम कालेज में दो वर्ष बाद 1961 में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ । इस उपन्यास के शीर्षक ने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जिसका आधार कॉलेज का वास्तुशिल्प है । और इस दृष्टि से भी उपन्यास महत्त्वपूर्ण रहा । न खंभे गिनती में पचपन थी और न कालेज की दीवारें लाल किन्तु तथाकथित खंभो का रंग लाल जरूर है । ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ की तात्कालिक व्यापक लोकप्रियता का कारण यह था की उसका कथानक एक मध्यवर्गीय परिवार की एक ऐसी शिक्षित युवती के चरित्र पर केन्द्रित है जो दिल्ली के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक है । उपन्यास की रचयिता उषा प्रियम्वदा जी भी दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में अध्यापिका थी । पाठकों को यह संदेह था की कहीं ये उपन्यासकार की निजी जीवन का सत्य तो नहीं । पर ऐसा नहीं था । रचना वास्तविक जीवन की अविकल प्रस्तुति नहीं होती । उसकी पुनर्रचना होती है , जिसमें रचनाकार यथार्थ का नहीं अपनी भावों और कल्पनाओं के जरिए यथार्थ की संभावना का सृजन करता है । जिस समय यह उपन्यास रचना उषा जी ने इस उपन्यास की रचना की उस समय मध्यवर्गीय परिवारों की शिक्षित लड़कियां काफी संख्या में शिक्षित हो चुकी थी । लड़कियों के लिए सम्मानजनक पेशें के रूप में डॉक्टरी और अध्यापन को स्थान दिया जाता था । लड़कियों को अपनी खुशी का कम तथा पेशा चयन की स्वतंत्र जैसी आज है वैसी तब नहीं थी । पर स्त्रियॉं की आत्मनिर्भरता ने स्त्रियों में जितना आत्मविश्वास पैदा किया उतना असमंजस भी । जिन घरों में लड़कों के अभाव में घर की आय का मुख्य श्रोत बड़ी बेटी होती उसके जीवन में विवाह के संबंध में दूर दूर तक कोई भी बात नहीं होती । सुषमा, उपन्यास की नायिका इसी दर्द से पीड़ित एक स्त्री है जिसने पूरे घर को अपने अर्थोपार्जन के जरिए संभाल के रखे हुये है । सुषमा के बिना इस परिवार की खुशहाल जिंदगी कल्पना भी नहीं की जा सकती । एक सुषमा को छोड़कर हर कोई अपने बारे में सोचते हैं पर सुषमा को जैसे ये हक है ही नहीं । एकमात्र घर की आर्थिक स्थिति की संभाव्यता को देखकर ही बड़ी बहन के रहते सुषमा की माता उसकी छोटी बहन की विवाह का सोचती है जिससे सुषमा के दिल को ठेस अवश्य पहुँचती है । सुषमा सबकुछ देखकर भी अनजान बनी रहती है । अपने कर्तव्य और नैतिकता के तले सुषमा मजबूर है । सुषमा की यह सोच भारतीय परिवारों की सोच और संरचनाओं का देन है । सुषमा की पीड़ा उस स्त्री की पीड़ा है जो हर भारतीय की तरह एक सुखी ,सुरक्षित , प्यारा सा विवाहित जीवन का सपना पालती है । इस सपने को पूरा करने के विकल्प कइबार सुषमा के जीवन में आता है पर वह विकल्प सामने होने पर भी चुनाव के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाती । ‘नील’ सुषमा के अंधकारमय जीवन में रोशनी के रूप में आता है, सुषमा नील की संगत से जैसे पुनर्जीवित हो उठती है , उसका मन नील की संगति से खिल उठता है किन्तु समाज और घर परिवार के नियमों से बंधी सुषमा अपने मन को वहीं समझाकर रोक लेती है । इसतरह प्रेम को अपने मन में मार डालने से बेहतर उसे खुद मर जाना बेहतर लगता है जो वो नहीं कर सकती । सुषमा की पीड़ा साधारण नहीं है । सुषमा का स्त्री मन बार बार यहीं पूछता है की क्या अपने सारे दायित्त्वों, कर्तव्यों को निभाते हुए क्या वह खुशी की कल्पना नहीं कर सकती? क्या उसे अपने लिए सोचने का कोई अधिकार नहीं? सुषमा का नील से कहना : मैं केवल एक साधन हूँ ।मेरी भावना का कोई स्थान नहीं। विवाह करके परिवार को निराधार छोड़ देना मेरे लिए संभव नहीं । मैंने आपे को ऐसी ज़िंदगी के लिए ढाल लिया है । तुम चले जाओगे तो मैं अपने को उन्हीं प्राचीरों में बांध कर लूँगी ।” उन्हीं प्राचीरों में अपने को बंद कर लेने का सुषमा का विवशताजन्य निर्णय है इच्छित नहीं । सुषमा को पता है इस अवसाद भरी ज़िंदगी में केवल नील ही है जिससे वह अपनी मन की बात कह सकती है । नील से वह कुछ सांत्वना पा सकती है परंतु किसी बंधन में नहीं बांध सकती। सुषमा के खुशी की राह बहुत ही कठिन प्रतीत होती है । अपनी खुशी को अगर वह चुनती है तो दायित्वों से पीछे हटना पड़ेगा और यह करके भी वह खुश नहीं रह सकती । एक आत्मनिर्भर स्त्री के रूप में सुषमा सफल है । कॉलेज की अध्यापिका होने के साथ साथ सुषमा हॉस्टल की वार्डेन भी रहीं । दिल्ली के नामचीन कॉलेज में काम करने के बाद भी सुषमा जैसे संतुष्ट नहीं थी । सुषमा का नील से यह कहना – “नौ साल से मैं इस कॉलेज में हु नील, पर यहाँ का लोग किसी को जीने नहीं देते ।’ सुषमा की व्यक्तिगत ज़िंदगी के सहयोगियों की जासूसी , टीका- टिप्पणी, उसे अपदस्थ करने के लिए षड़यंत्र तथा योजनाएँ हमेशा चलती रहती है । नील का सुषमा से हॉस्टल में मिलने आने को लेकर भी छात्राओं के बीच चर्चाएँ होती है । होस्टल की वार्डेन होने के नाते सुषमा को भी अनुशासन का पालन करनी पड़ती है। इन सब चीजों को सुषमा अनदेखा जरूर करती है परंतु वह अंदर से शांत नहीं हो पाती । उसकी अपनी मित्र मीनाक्षी भी मौका ढूंढकर बातें सुनाने से नहीं चुकती । शुभशिंतक की मुद्रा में मीनाक्षी कहती है , ‘सुषमा तुम बुरा न मानना, मैं बहुत दिन से एक बात करना चाह रहीं थी। होस्टल की लड़कियों में, स्टाफ रूम में, नौकरों में, हर जगह आज तुम्हारी ही चर्चा है।’ कुल मिलाकर एक ऐसा माहोल जो सुषमा के चारों और परिवेश में मौजूद स्त्रियॉं की मानसिकता को, उनकी रुचियों और व्यवहारों को उजागर करता है। सुषमा अपने मित्र मीनाक्षी की बात का उत्तर भी देती है की – ‘मैं किसी की परवाह नहीं करती । पर ये कहना मात्र है , सुषमा का मन भी विचलित होता है इन बातों से । जिन अवसादों से सुषमा का जीवन घिरा हुआ है उसके कई सबब है । बचपन में उसके स्वप्नों का केंद्र ‘नारायण’ जिससे दहेज के कारण विवाह नहीं हो सका, माँ की इच्छा के बावजूद । विवशता में उलझा हुआ पिता का चेहरा, छोटी बहनों की विवाह की चिंता, अपने संतानों को पालने की चिंता से माँ का असुरक्षाबोध, सुषमा का नौकरी के लिए दर दर भटकना, नौकरी मिलने के बाद भी पैसों को लेकर अथवा घर गृहस्थी बनाने में माँ का हस्तक्षेप, सब मिलकर एक ऐसी परिवेश का निर्माण होता है जो उस समय के लगभग सभी मध्यवर्गीय परिवारों का सच हुआ करता था । यह स्थितियाँ विशेषतः उस पृष्ठभूमि तैयार करती है जो उपन्यास का वास्तविक कथ्य है। सुषमा की कहानी उन सारी स्त्रियॉं की कहानी है जो एक तरफ से आत्मनिर्भरशील है , समाज में अपना पहचान बनाई हुयी है और दूसरी और अपने घर में आजीविका के मुख्य श्रोत होने के कारण अपनी तमाम खुशियों से भी वंचित होना पड़ता है । क्योंकि घर का एकमात्र कमाने वाला इन्सान अगर घर से चली जाए तो उस घर- परिवार के लिए बहुत ही दुर्दशा की बात हो जाती है । इसलिए ऐसी स्त्रियाँ अपनी खुशियों से ऊपर कर्तव्यों को मानकर आगे बढ़ती है ।अपने कर्तव्य और खुशी के बीच में उलझकर सुषमा को लगता है जैसे किसी दलदल में फँसकर रह गयी है । वह छतपटाती है, उबरना चाहती है पर दिन प्रतिदिन डूबती ही चली जाती है । वह बहुत से निर्णय लेना चाहती है पर भितरी अवरोध उसके आड़े आ जाते है । नील जैसे एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व को पाकर भी खो देना सुषमा के लिए सहज निर्णय नहीं है । पर मध्यवर्गीय परिवार की संरचना और सामाजिक दायित्वबोध के बीच वह इतनी जकड़ी रहती है की वह नील को भी अपने से अलग कर देती है । उसका जीवन जैसे अपनी शर्तों से नहीं पारिवारिक जरूरतों से एवं सामाजिक दायित्वबोध से परिचालित होता है ।
उपन्यासकार उषा प्रियम्वदा जी की उपन्यासों की विशेषता यह है की वह अपने चारों और की जीवन से किसी एक गिनी चुनी पक्ष की गहन पकड़ और उसमें बड़े कौशल से ऐसा रूप देती है जैसे पाठक को लगें की हमारे आसपास में जो घटित हो रही है यह उसी का प्रतिविम्ब है । इस रचनाशीलता की दृष्टि से उपन्यासकार उषा प्रियम्वदा बहुत ही सफल है। ज़िंदेगी की कुछ गहरी वेदना तथा विडंवनाएँ होती है उनके पात्रों के जीवन में जो असमंजस की स्थिति पैदा करती है और विवशता भरा जीवन जीने के लिए मजबूर करती है । इस विवशता का स्रष्टा वह स्वयः है पर इसके लिए न परिवार को जिम्मेदार ठहरा पाती है न खुद को। पाठकों के मन में ऐसी पात्रों के लिए बस सहानुभूति ही रह जाती है । समकालीन साहित्य इसी तरह साहित्य तथा मानव जीवन के विविध पक्षों को लेकर समृद्ध है।
सहायक ग्रंथ –
- पचपन खंभे लाल दीवारें , उषा प्रियम्वदा ।
- कथा समय में तीन हमसफर , निर्मला जैन ।
- कथाकार उषा प्रियम्वदा , सुभाष पवार ।
- उषा प्रियंवदा की उपन्यास सृष्टि, डॉ शहनाज अकुली ।
- हिन्दी उपन्यास का इतिहास , गोपाल राय ।
- उपन्यास समय और संवेदना, विजय बहादुर सिंह ।
गीतिका सैकिया
असम विश्वविद्यालय,सिलचर