May 23, 2023

82. डॉ० रामविलास शर्मा और प्रगति का विमर्श – डॉ. सुलेखा कुमारी

By Gina Journal

डॉ० रामविलास शर्मा और प्रगति का विमर्श

डॉ. सुलेखा कुमारी

शोध- सार– प्रगतिशील साहित्य जिस यथार्थवाद की भूमि पर आगे बढ़ रहा था उसमें समकालीनता के मूल्यों का विशेष महत्व था। इस कारण चिरंतन साहित्यिक मूल्य के प्रश्न को लेकर साहित्य मे प्रगति की चर्चा होती रही है। डॉ.  रामविलास शर्मा का मानना है कि समसामयिक और समकालीन परिस्थितियों से अलग होकर साहित्य प्रगति पथ पर चल नहीं सकता। प्रगति, परिवर्तन और समकालीनता एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

बीज शब्द- प्रगति, विकास, विमर्श, परिवर्तन, समकालीनता, भौतिकवाद, मार्क्सवाद, परिवर्तन आदि।

आलोचना –इस शोध- आलेख की परिधि में प्रगति का विमर्श, प्रगति मूल्यों की समकालीनता और डॉ० रामविलास शर्मा की प्रगतिशील चिंतन दृष्टि है। इन सभी के केंद्र में है- प्रगतिशील लेखक संघ। डॉ० शर्मा का जुड़ाव एक लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ से रहा और उनकी चिंतन दृष्टि को विस्तार देने में इस पृष्ठभूमि का विशेष महत्व रहा है।

प्रगति शब्द का अर्थ है- अग्रगामी विकास। यह वस्तुस्थिति में परिवर्तन को लक्षित करता है। प्राचीन दार्शनिक परिवर्तन का अर्थ मृत्यु या विनाश मानते थे। प्रकृति या मनुष्य दोनों परिवर्तित होकर अंतत: विनाश या मृत्यु को ही प्राप्त होते हैं। प्राचीन यूनानी दार्शनिक मतवादों में प्लेटो का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि “परिवर्तन मृत्यु की ओर ले जाता है। अपरिवर्तनशील वस्तु परिवर्तनशील वस्तु की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान है। समय मनुष्य का शत्रु है क्योंकि वह परिवर्तन लाता है।”1 इसी प्रकार “ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार कृत, त्रेता, द्वापर और कलि का क्रम मनुष्य को जागृति से सुषुप्ति की ओर ले जाने का क्रम है।’’2 यही नहीं, सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन को भी विनाश का कारण माना जाता रहा है। यह धारणा बहुदेशीय थी। सर्वप्रथम रिनैसा युग में वैचारिक जगत में इतिहास की गति को महत्व दिया जाने लगा । सन 1789 की फ्रांस क्रांति ने ऐसी उद्भावनाएँ दी, जो एक बेहतर समाज के लिए परिवर्तन चाहती थी। इस युग के प्रमुख विचारक त्यूरागो ने इतिहास क्रम में मानवीय प्रगति पर विशेष ध्यान दिया। पुनः 1848 की फ्रेंच क्रांति ने सामाजिक प्रगति और परिवर्तन का लक्ष्य समानता को माना। हर्डर, काण्ट, फ़िश्टे, और हेगेल जैसे विचारकों ने सामाजिक प्रगति का नवीन परिचय दिया “1848 की फ्रेंच क्रांति का मूल सिद्धांत ही प्रगति का सिद्धांत है। फ्रेंच क्रांति के समय प्रगति की धारणा के साथ उसकी दिशा के बारे में यह दृष्टिकोण बहुत प्रबल रूप से सामने आया कि प्रगति की सच्ची दिशा समानता है, वर्ग भेदों की समाप्ति है।”3

मानवतावाद शब्द का प्रथम प्रयोग भी पुनर्जागरण काल में मनुष्य की समानता के सिद्धांत से संबद्ध था। प्रगति और परिवर्तन की अवधारणा को दृढ़ता प्रदान किया मार्क्सवादी विचारधारा ने। इसलिए डॉ० शर्मा मार्क्सवाद की व्याख्या निम्न शब्दों में करते हैं “मार्क्सवाद समाज को समझने और उसे बदलने का विज्ञान है। जो भी वर्तमान व्यवस्था को बदलना चाहता है, वह मार्क्सवाद का अध्ययन किए बिना नहीं रह सकता।”4 मार्क्स ने प्रगति के चिंतन को विस्तार देते हुये यह सिद्ध किया कि जीवन और समाज के मूल में परिवर्तन का सिद्धांत निहित है। प्रगति की दिशा शोषणहीन साम्यवादी व्यवस्था की ओर उन्मुख है। प्रगति की नवीन अवधारणा मार्क्स से शुरू होती ही। मार्क्स के इस सिद्धांत ने दर्शन और साहित्य पर भी प्रभाव डाला। प्रगतिशील दृष्टि के केंद्र में मार्क्स के प्रगति के सूत्र माना जाता रहा है। डॉ० शर्मा लिखते हैं “मार्क्सवाद से प्रभावित होने का यह अर्थ नहीं है कि हम साहित्य को राजनीतिक कार्यक्रमों से बांध देते हैं; वरन उससे प्रभावित होने का अर्थ है समाज और साहित्य की गतिविधि के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना।”5 मार्क्स ने बदलते हुये सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत कारणों की खोज की और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को उद्घाटित किया। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण सिर्फ राजनीति का प्रश्न नहीं हो सकता; यह सम्पूर्ण मनुष्यता के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है। अत: साहित्य को भी इस विचारधारा ने प्रभावित किया।

प्रगतिशील साहित्य को लेकर हिन्दी जगत में चर्चा की शुरुआत सन 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ से होती है। इस शब्द रूप को लेकर हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद की शुरुआत होती है। अत: प्रगतिशील शब्द के उद्भव और युग संदर्भों पर विचार करना आवश्यक है। 9-10 अप्रैल सन 1936 में लखनऊ में होने वाला प्रलेस का प्रथम अधिवेशन साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के लिए विशेष आकर्षक रहा। इसके पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन, अंजुमन- तरक़्क़ी-ए-उर्दू, भारतीय साहित्य परिषद, हिंदुस्तान अकादेमी जैसे संगठन सक्रिय थे। मगर जितने व्यापक रूप से प्रगतिशील लेखक संघ को स्वीकृति मिली वैसी इन संस्थाओं को नहीं। पंजाब, हरियाणा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात आदि विभिन्न क्षेत्रों के लेखकों का इसे सहयोग प्राप्त था। प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष प्रेमचंद का होना भी यथास्थितिनुसार सटीक था। प्रेमचंद ने ‘हंस’ के माध्यम से प्रगतिशील लेखक संघ के उद्देश्य पर बार-बार आलेख लिखे। सबसे महत्वपूर्ण था प्रथम अधिवेशन का घोषणा पत्र जिसमें कहा गया कि “वह सबकुछ जो हममें समीक्षा की प्रवृति लाता है, जो हमें रूढ़ियों को बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो हमें कर्मठ बनाता है और हममें संगठन की शक्ति लाता है, उसी को हम प्रगतिशील समझते हैं।”6  प्रगतिशीलता को परिभाषित करते हुये इस घोषणा पत्र में भारत के संघर्षों को विश्व के संघर्षों से जोड़ने की प्रेरणा अंतर्निहित थी।

प्रगति मूल्यों की समसमयिकता और शाश्वत सत्य का दर्शन

प्रगतिशील साहित्य ने समकालीन परिस्थितियों पर विशेष ज़ोर दिया। प्रगतिवाद की शुरुआत ही साहित्य में बढ़ती यथार्थवादी प्रवृत्ति और साधारण जन की ओर उसके झुकाव से हुआ। प्रगतिशील साहित्य का गहरा जुड़ाव राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से था। डॉ० शर्मा ने सन् 30 के बाद ही हिंदी साहित्य में एक व्यापक और बुनियादी परिवर्तन को लक्ष्य कर रहे थे। उनके अनुसार “यह परिवर्तन अपने आप हुआ था, किसी संगठन द्वारा निर्देश देने पर या उससे संचालित होकर यह परिवर्तन नहीं हुआ।”7  इस परिवर्तन को उन्होंने प्रेमचंद के साहित्य से ही लक्षित किया है। “यह परिवर्तन यथार्थवाद की ओर है। प्रेमचंद ने पहले महायुद्ध के समय ही ‘सेवासदन’ लिखकर इस यथार्थवाद के लिए ज़मीन तैयार की थी।“8 इस पृष्ठभूमि से जुड़कर प्रगतिशील साहित्यकारों ने जिनमें अमृतलाल नागर, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, वृंदावनलाल वर्मा, सुमन प्रमुख हैं, साहित्य को यथार्थवाद की नई ज़मीन दी, जिसमें साहित्य और वर्तमान परिस्थितियों का बहुत गहरा संबंघ स्थापित हुआ।

मार्क्स ने जगत् की परिवर्तनवादी व्याख्या की। वह विश्व में एक मात्र परिवर्तन को ही स्थाई मानता है। उसने मनुष्य-समाज की भी विकासवादी व्याख्या प्रस्तुत की। डॉ० शर्मा ने भौतिकवादी और भाववादी दर्शनों के मध्य पार्थक्य को चित्रित करते हुए लिखा है- “भौतिकवादी दर्शन पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह ज्ञान को विकासमान समझता है।“9 इस कारण वह सत्य को भी विकासमान और परिस्थितियों से प्रभावित मानता है। डॉ० शर्मा कहते हैं- “साहित्य किसी ऐसे शाश्वत् सत्य का चित्रण नहीं कर सकता, जो सामाजिक परिस्थितियों से परे हो। जिस समाज में वर्ग-संघर्ष कायम हो, उसको चित्रित करने वाला साहित्य वर्गों से परे नहीं हो सकता।”10 अत: साहित्य में शाश्वत् सत्य या शाश्वत् मूल्यों की स्थापना करना भूल है। किन्तु साहित्य में शाश्वत मूल्यों और सत्यों की स्थापना को लेकर कई प्रश्न उठाए गए हैं।

वास्तव में चिरंतन सत्य की अवधारणा भाववादी दर्शन की प्रमुख विशेषता है; जिसमें भौतिकवादी यथार्थवादी ऐतिहासिक दृष्टि को अशाश्वत क्षणिक और सामयिक महत्व का माना। प्रगतिशील साहित्य जिस यथार्थवाद की भूमि पर आगे बढ़ रहा था उसमें समसामयिक परिस्थितियों का विशेष महत्व था। इस कारण चिरंतन साहित्यिक मूल्य के प्रश्न को लेकर साहित्य को परिस्थितियों से अलग कर उसे यथार्थवाद की वास्तविक भूमि से अलगाना था।

डॉ० रामविलास शर्मा ने प्रगतिशील साहित्य और प्रगतिशील समीक्षा के अंतर्गत इस समस्या पर वस्तुवादी दृष्टिकोण से ‘साहित्य के स्थायी मूल्यों की समस्या: कालिदास’ शीर्षक लेख में विचार करते हैं। वह कहते हैं कि साहित्य इंद्रियबोध, भावों और विचारों का सुंदर सामंजस्य है। इस कारण उनका मानना है कि ‘उच्च साहित्य में महान विचारों, गंभीर भावों और सूक्ष्म इंद्रियबोध का समन्वय मिलता है, इनका असंतुलन साहित्य के प्रभाव और उसके कलात्मक सौंदर्य को कम करता है।’ कालिदास के साहित्य का मूल्यांकन करते हुये उन्होंने साहित्य को स्थायी माने जाने वाले कारणों का विस्तार से वर्णन करते हैं। कालिदास का साहित्य हमारे लिए मूल्यवान है मगर उस तरह नहीं जैसा की माना जाता रहा है। डॉ० शर्मा कालिदास को चारण कवि नहीं मानते; न ही उनके साहित्य के प्रत्येक तत्व को मूल्यवान मानते हैं। वह उन्हें मुख्यत: एक सौंदर्योपासक ‘लिरिक कवि’ कहते हैं। कालिदास के साहित्य में मानव-जीवन के सर्वांगीण चित्र नहीं है; जैसे व्यास और वाल्मीकि में है। किंतु कालिदास ने अपने साहित्य द्वारा हमारे इंद्रियबोध और भाव जगत को समृद्ध किया है- “उमा का सौंदर्य, वाल्मीकि का सात्विक क्रोध, इंदुमति के लिए अज का शोक, भारत की धरती से कवि का प्रेम- ये सभी साहित्य के स्थायी तत्व हैं। इन्हें कवियों ने तुरंत नहीं पा लिया, इन्हें पाने के लिए उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का लंबा मार्ग तय करना पड़ा था। कालिदास ने उन मानव-मूल्यों को सहेजा और अनेक दिशाओं में उन्हें अधिक विकसित किया।”11 किंतु विचारों के स्तर पर कालिदास के साहित्य से सहमत होना असंभव है। इस तरह किसी भी युग के साहित्य के स्थायी मूल्य को उस युग के साहित्य की अमरता या शाश्वतता का प्रश्न नहीं है; बल्कि साहित्य या कला के निरंतर विकास का प्रश्न है।

संदर्भ सूची

  1. डॉ० रणजीत, ‘हिन्दी की प्रगतिशील कविता एवं हिन्दी साहित्य संसार’, प्रगतिशील प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, पृष्ठ-13
  2. डॉ० रणजीत, ‘हिन्दी की प्रगतिशील कविता एवं हिन्दी साहित्य संसार’, प्रगतिशील प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, पृष्ठ-13
  3. डॉ० रणजीत, ‘हिन्दी की प्रगतिशील कविता एवं हिन्दी साहित्य संसार’, प्रगतिशील प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण,पृष्ठ-26
  4. शर्मा रामविलास, ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1984, पृष्ठ-221
  5. शर्मा रामविलास, ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1984, पृष्ठ-221
  6. चौहान कर्ण सिंह, ‘प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास’, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, संस्कारण -1998, पृष्ठ-168-169
  7. शर्मा रामविलास, ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्कारण-1984, पृष्ठ-54
  8. शर्मा रामविलास, ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्कारण-1984, पृष्ठ-54
  9. शर्मा रामविलास, ‘आस्था और सौंदर्य’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्कारण, 1961, तीसरी आवृति, 2015, पृष्ठ-16
  10. शर्मा रामविलास, ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्कारण-1984, पृष्ठ-74
  11. शर्मा रामविलास, ‘आस्था और सौंदर्य’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्कारण, 1961, तीसरी आवृति, 2015, पृष्ठ-70

डॉ. सुलेखा कुमारी

सहायक प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग

विद्यासागर कॉलेज, कोलकाता

 संपर्क: 20, पी. बी. एम. रोड, चांपदानी

पो.- बैद्यबाटी, जिला- हुगली, पिन- 712222