65. दलित लेखिका का जीवन संघर्ष: ‘अपनी जमीं अपना आसमां’ में – बिंदु आर
Page No.: 466-472
दलित लेखिका का जीवन संघर्ष: ‘अपनी जमीं अपना आसमां’ में
बिंदु आर
सारांश
समकालीन यथार्थ का चित्रात्मक स्वरूप ही साहित्य है। साहित्य का समकालीन परिस्थितियों से गहरा संबंध है। साहित्य समाज का दर्पण है। किसी भी युग की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक समस्याओं का समग्र चित्रण ही समकालीन बोध है।“1
समकालीन हिंदी साहित्य में आज कई विमर्श उभर कर आई है ।जैसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श, पुरुष विमर्श आदि। कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और भी अन्य विधाओं के माध्यम से ये सब साहित्य जगत में मुख्यधारा का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इसमें हिंदी साहित्य के मुख्यधारा में दलित विमर्श का मुद्दा अस्सी के दशक में उभरा जो नब्बे तक आते-आते काफी चर्चित हो चुका था। दलित साहित्य में दलित साहित्यकार अपने जीवन के कटु अनुभवों को व्यक्त करते हैं, जिसका एकमात्र उद्देश्य यही है कि पूरी दुनिया यह जाने कि उनके साथ क्या दुर्व्यवहार हुआ है। हाशिएकृत लोग अपने हक के लिए लड़ रही है ।
आत्मकथा में लेखक अपने जीवन की घटनाओं का यथार्थ चित्रण करता है। लेखिका कवियत्री, पत्रकार, स्त्रीमुक्ति आंदोलन की अग्रणी कार्यकर्ता रजनी तिलक की आत्मकथा ‘अपनी जमीं अपना आसमां’ 2017 में ईशा ज्ञानदीप द्वारा प्रकाशित हुई ।उनकी आत्मकथा में बचपन से शादी तक के कालखंड की जिक्र की है
शोध आलेख:
दलित स्त्री को जातिगत और लिंगगत दोनों तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। एक व्यक्ति के अस्तित्व में जाति कहाँ तक प्रभावित है इसे रजनी तिलक जी ने अपनी आत्मकथा के शुरू में ही यों व्यक्त किया है-
“जाति की पहचान भारतीय समाज में पिस्सू की तरह चिपकी हुई है। भारत के किसी भी कोने में चले जाओ, यह पहचान साये की तरह आप से चिपकी रहती है। आपकी पहचान जन्मगत जाति से होती है। जन्म से मिली जाति आपको विरासत में देती है – आपका पेशा ।”2
जातिगत गठबंधन को तोड़ना इतना आसान नहीं है। उसमें भी दलित स्त्री को। इस पितृसत्तात्मक, जातिगत समाज के नियमों को पारकर आगे बढ़ने में बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है । रजनी तिलक का जन्म 27 मई 1958 को पुरानी दिल्ली की मछलीवालान के एक बस्ती में एक जाटव परिवार में हुआ था। उन्हें दो बड़े भाई मनोहर और अनिल तीन छोटे भाई अशोक, संजय, मनोज और दो बहने पुष्पा और अनीता थे। वह अपने पिताजी को भाई जी और माँ को भाभी बुलाते थे। उसके पिता दुलारे लाल दर्जी थे। उसके पिताजी ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया। जब रजनी तिलक जी पैदा हुई तो उसके घर में बहुत गरीबी थी।
बुखार के कारण उसके भाई अनिल की मृत्यु हो गई। रजनी जी से बडे तीन बहन – भाई गरीबी से उपजी अस्वस्थता एवं कुपोषण के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। उसके भाई अनिल की मृत्यु के बाद उसकी माँ को मानसिक अवसाद ने घेर लिया। लेकिन उसके पिताजी ने भरपूर स्नेह से उसे संभाल लिया। तब रजनी जी नवीं में पढ़ती थी। उसके पिता अत्यंत मेहनती, एक जिम्मेदार पति एवं स्नेहमय पिता थे। उसके पडबाबा के खेत को ठाकुर ने धोखे में हड़प लिए। उसके बाद उसके दादाजी अपनी माँ और दो बेटों सहित दिल्ली में आकर बस गया।
रजनी तिलक जी के पिताजी और उसकी मां के यह दूसरी शादी थी। उसकी मां जावित्री देवी अनपढ़ थी। इसलिए ही उसके पहले पति से वह धोखा खा लिया। ल रजनी जी की मां जावित्री देवी पूरे मोहल्ले में अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्ववाली, अत्यंत मेहनती, बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित, स्वाभिमानी और समझदार व्यक्ति है। जावित्री देवी की यह दूसरी शादी है । दूसरी शादी के समय वह यही शर्त रखी थी कि
“ मैं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं ।”3
अपनी अनपढ़ता के कारण ही वह अपने पहले पति से धोखा खा लियाथा । उसके पहले पति ने उसे धोखे से खाली पेपर पर साइन कराकर उन्हें छोड़ दिया ।इसलिए उन्होंने संकल्प लिया कि उनकी औलाद अनपढ़ नहीं रहेगी। वह अपने मोहल्ले के दूसरे औरतों को भी अपनी लड़कियों को पढ़ाने की सुझाव देती थी।जब गली की औरतें गोबर पाथने जाती और लड़कियों को साथ ले जाती तो उन्हें टोककर रोकती और कहती ,
“चम्पा, बिरमो तुम जो काम कर रही हो इन लड़कियों से मत करवाओ। इन्हें स्कूल भेजो ‘पढ़ाओ- लिखाओ, इन्हें ऐसा बनाओ कि गोबर थापने का काम इन्हें न करना पड़े।”4
वह अपने मोहल्ले की अन्य औरतों जैसे नहीं थी ।वह घर में ही रहकर कागज के लिफाफे बनाती थी और अपने पति के काम में भी मदद करती रही । रजनी जी घर के बड़ी बेटी होने की वजह से अपने छोटे भाई -बहनों को देखने की जिम्मेदारी उस पर पड़ी। जब उसकी मां बीमार हो गई तब उन्हें घर का सारा काम करके मां का भी देखभाल करनी पड़ी। वह ग्यारहवीं के बाद बी.ए में दाखिला ले लिया। लेकिन पहले वर्ष में फेल होने की वजह उसे छोड़ना पड़ा ।उसके बाद सिलाई कढाई डिप्लोमा करने के लिए कर्जन रोड स्थित महिला आई टी आई में दाखिला लिया। बहुत कष्ट सहते हुए भी वह आई टी आई परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने ‘रजनी स्वराज’ नाम से कविताएं लिखने लगी। वह अपने पहली कविता ‘कासे कहूँ दुख अपना’ 1976 में लिखी ।
दलित युवक-युवतियों को सरकारी नौकरी हेतु रात्रिकालीन कक्षाएँ सरकार द्वारा अनुसूचित जाति के बच्चों के लिए पूर्व प्रशिक्षण केंद्र चल रहे थे ।जिसमें वे अनुसूचित जाति के बच्चों को पूर्व प्रशिक्षण देकर सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करवाते । रजनी जी भी रात्रिकालीन उस प्रशिक्षण में जाने लगी। उसके पिताजी के विरोध के बावजूद भी वह जाने की निर्णयली। राजनी जी इसके बारे में कहती है कि-
“ आज की तरह उन दिनों शाम के वक्त सड़कों पर लड़कियांनहीं दिखती थीं। सडकें, रास्ते और खचाखच भरी बसें लड़कियों के अनुकूल नहीं थीं राह चलते कोई भी उन्हें घूर-घूर कर देखने लगता था। उनके आसपास या साथ साथ या पीछे-पीछे चलते शोहदे या अधेड़ उम्र के मर्द उनके कानों में फुसफुसाकर अश्लील फब्तियां कस जाते। कभी कोई अचानक टक्कर मारने के बहाने युवतियों के शरीर के उभारों को स्पर्श करके भाग जाता। कभी-कभी कुछ मर्द तो लड़कियों के पीछे-पीछे चल पड़ते। ऐसे प्रतिकूल समय के कारण ही शायद माँ-बाँप अपनी लड़कियों को घर में ही रहने की सलाह देते होंगे।”5
कोचिंग सेंटर में डॉ. अंबेडकर की विचारधारा को मानने वाले दलित युवक युवतियों से उसकी मुलाकात हुई। जिनमें जयपाल, जे.एस. आनंद, सुशीला, सुजाता, सुनीता, मोहन सिंह, भगवान दास आदि थे। वे डाॅ. अंबेडकर की जयंती और बौद्ध धर्म के बारे में अक्सर बातचीत किया करते थे ।ये सब मिलकर ‘यंगमैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ ग्रुप बना लिया। ‘धम्म दर्पण’ नाम पत्रिका का प्रकाशन भी करने लगा। लेकिन यह धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गई थी। बाद में वे ‘यूथ स्टडी सर्कल’ बना लिया। उसमें स्कूल व कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के लड़कियों से निबंध लिखवाते थे।
रजनी तिलक जी के सामाजिक सेवा कार्यों में भाग लेना उसके पिताजी को पसंद नहीं थे। लेकिन उसके भाई मनोहर के समझाने से पिताजी चुप हो जाते थे। रजनी तिलक जी अपने बड़े भाई मनोहर लाल को इतना उदार, सहयोगी और समझदार दिखाकर एक आदर्श भाई के रूप में चित्रित कर लिया है। उसके भाई के कारण ही वह एक डरी, दबी, सहमी, शर्मिंदा और हीन भावना के बोझ से दबी तिलक से रजनी और फिर रजनी तिलक बनती है। उसके अनुसार घर और बाहर की दुनिया में उसका सबसे बड़ा सहयोगी, उसका आदर्श उसको बाहर की दुनिया से अवगत कराने वाला उसको समाज सेवा के लिए प्रेरित करने वाला उसकी हर परेशानी व दुख में साथ खड़ा रहने वाला उसका भाई मनोहर लाल ही था ।
रजनी जी को सामाजिक सेवा कार्य के लिए प्रेरित करने वाला, पढ़ने के लिए हिम्मत देने वाला और एक व्यक्ति है उसके भाई के मित्र रमेश भौंसला। खुद रजनी जी के दोस्त और कई लोगों के पुस्तक भी उसको प्रेरणास्रोत रहे। जैसे राहुल सांकृत्यायन और हार्वडफास्ट। इसके बारे में रजनी जी लिखा है कि
“भाभी परंपरावादी कट्टर धार्मिक हिंदूवादी थी तो मैं बुद्धिज्म की तरफ चल पड़ी थी। मनोहर भी अनीश्वरवादी, अंबेडकरवादी, प्रगतिशील विचारों का था। मेरे अपने विचार ही उसके और उसके दोस्तों की देन थे।………….मेरे मित्र अंबेडकरवादी, कम्युनिस्ट, नारीवादी थे मैं भी उनकी तरह सोचने और समाज में परिवर्तन करने की दिशा की ओर अग्रसर थी।”6
1984 में उन्हें प्रवर्तन निदेशालय मुंबई में सरकारी नौकरी में नियुक्ति मिली। मुंबई में काम करते समय भी वह सामाजिक सेवा कार्य से जुड़े रहे। वह ‘दलित पैंथर’ की मीटिंग में भाग लिया करती थी उसी समय उन्होंने मुंबई का प्रख्यात नारीवादी संगठन वूमेन फोरम में भी ज्वाॅइन कर लिया। साथ ही उन्होंने दिल्ली के ‘सहेली’ नाम के संगठन में भी कार्यरत थी।
स्त्री जहाँ भी हो सुरक्षित नहीं है। उसकी समस्या भी हर कहीं एक जैसा भी है ।जितने भी संगठन में उन्होने काम किया इन सभी का उद्देश्य एक ही है। इसके बारे में रजनी जी कहता है कि-
“मुंबई हो या दिल्ली महिलाओं की समस्याएं उत्पीड़न एक जैसी थीं। आंदोलन भी एक जैसे थे। घरेलू श्रम को सम्मान दिलाना, महिलाओं को बराबरी का हक दिलाना, स्त्री पुरुष असमानता को समाप्त करना, पितृसत्तात्मक रुझानों को एक्सपोज करके उनके विरुद्ध प्रचार करना आदि…. आदि इन संगठनों के अभियान थे।”7
यह एक सक्रिय सामाजिक और स्त्री कार्यकर्ता की आत्मकथा है । इसलिए पूरी आत्मकथा में उनकी सामाजिक कार्यों का ब्यौरा है। वह निरंतर संघर्ष करते रहे और सामाजिक सेवा कार्य से जुड़े रहे। वह अपने भाई के मित्र आनंद भारती से शादी कर ली। 2 नवंबर 1986 को बौद्ध तरीके से उसकी शादी हुई। पुस्तक के अंत में उसकी ये वाक्य सभी लड़कियों को प्रेरणादायक हैं।वह लिखा है कि
“ अपने घर की देहरी को लांघकर मैंने हृदय से आनंद के परिवार को अपना लिया। मैं अपने साथ लेकर गई थी अपना अपनापन, अपनी मेहनत, अपना प्यार, अपने विचार, समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और साथ में बैरन खून में समायी मेरी स्त्री- पुरुष समानता की सोच।”8
रजनी तिलक की आत्मकथा दूसरों को प्रेरणा देने, अधिकारों की लड़ाई में आगे बढ़ने और उनसे जूझने का बल देती है। ‘अपनी जमीं अपना आसमां’ को दलित और स्त्री साहित्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान है।
संदर्भ:
- https://tejasviastitva.com- साहित्य और समकालीनता- डॉ. कर्रि सुधा
- अपनी जमीं अपना आसमां- रजनी तिलक, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली- 110088, प्रथम सं. 2017 , पृष्ठ 11
- वही पृष्ठ 36
- वही पृष्ठ 43
- वही पृष्ठ 72
- वही पृष्ठ 105
- वही पृष्ठ 110
- वही पृष्ठ 120
सहायक ग्रंथ:
- अपनी जमीं अपना आसमां- रजनी तिलक, ईशा ज्ञानदीप, नई दिल्ली- 110088 प्रथम सं. 2017
- https://tejasviastitva.com – साहित्य और समकालीनता- डॉ. कर्रि सुधा
- https://m.sahityakunj.net>blog – हिंदी साहित्य और दलित विमर्श- प्रो. रमा
- https://streekal.com – दलित लेखिका की दावेदारी: अपनी जमीं अपना आसमां – अनिता भारती
बिंदु आर
शोधार्थी, हिंदी विभाग
कोच्चिन विज्ञान व प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय
कोच्ची – 682022