64. समकालीन हिंदी साहित्य में दलित विमर्श – ज्योत्सना आर्य सोनी
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समकालीन हिंदी साहित्य में दलित विमर्श
ज्योत्सना आर्य सोनी
प्रस्तावना
दलित साहित्य की अवधारणा को समझने से पहले’ दलित’ शब्द को समझना आवश्यक है। इस शब्द की उत्पत्ति ‘दल’ धातु से हुई है। ‘संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर’ में संपादक रामचंद्र शर्मा ने ‘दलित’ शब्द का अर्थ विशिष्ट किया हुआ, मसला हुआ, मर्दित,दबाया हुआ आदि बताया है।
कुसुमलता मेघवाल ने दलित की परिभाषा देते हुए लिखा है “कि दलित वर्ग का सामाजिक उन सभी जातियों को सम्मिलित किया गया है जो जातिगत सोपान पर निम्न स्तर की है ,और जिन्हें सदियों से दबाकर रखा गया है। हरिजन और दलित शब्द की अंतर ध्वनि को डॉक्टर पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी ने सही पकड़ा वे लिखते हैं,.1” डॉक्टर पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी ने सही पकड़ा वे लिखते हैं “हरिजन जाति व्यवस्था में निहित ऐतिहासिक अन्याय की चेतना को सवर्ण दृष्टिकोण से व्यक्त करने वाला शब्द है इसमें एक प्रकार का पश्चाताप का भाव है दलित करुणा या पश्चाताप को नहीं बल्कि बेवजह दमन और अपमान के शिकार होने को व्यक्त करता है”2 कवल भारती के शब्दों में “दलित साहित्य वर्ण व्यवस्था से पीड़ित समाज की वेदना का शब्द रूप है”।3 डॉ दयानंद बटोही भी यही मानते हैं कि “दलित साहित्य दलितों की चेतना को अभिव्यक्ति देता है। इसमें दलित मानवता का स्वर है ,एक नकार है, एक विद्रोह है। यह विद्रोह उस व्यवस्था के प्रति है जो सदियों से दलित का शोषण कर लाभ की स्थिति में है”4 वरिष्ठ दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कहा कि” दलित साहित्य भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को नकारता है, तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है।दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है जिसकी पहचान इतिहास के पृष्ठो से सदा के लिए मिटा दी गई है जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गई है।“
“ कह देता है किंतु पुजारी यह तेरा भगवान नहीं है,
दूर नहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है।
मैं सुनती हूं जल उठती है मन में यह विद्रोह ज्वाला,
यह कठोरता ईश्वर को भी जिसने टुकटुक कर डाला।
यह निर्मम समाज का बंधन और अधिक अब सहन नसकूंगी,
किंतु देवता यह ना समझना तू मेरा प्यार नहीं है।।“5
वर्तमान समय में दलित विमर्श हिंदी की मुख्यधारा में से उभर कर हमारे समक्ष आ रहा है ।इस विमर्श का अध्ययन किए बिना संपूर्ण साहित्य को समझना गलत होगा इस विमर्श का मूल उद्देश्य दलित जीवन की बुनियादी समस्याओं को जनता के सामने लाना है साहित्य में दलित विमर्श का मुद्दा 80 के दशक में उभरा जो 90 तक आते-आते काफी चर्चित हो चुका था। साहित्य का बहुचर्चित पत्रिका ‘हंस’ में दलित साहित्य का ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ सन् 1997 में राजकमल प्रकाशन ने आत्मकथा के रूप में से प्रकाशित किया यहीं से दलित साहित्य का मुद्दा विमर्श का मुद्दा बन गया। जिसका उद्देश्य केवल यह था कि केवल जातिगत भेदभाव का दर्द कितना गहरा है इससे समाज को अवगत करा सके। विख्यात दलित चिंतक कंवल भारती लिखते हैं “दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूप किया है अपने जीवन संघर्ष में जिस यथार्थ को भूखा है दलित साहित्य उसका उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है यह कला के लिए कला का नहीं बल्कि जीवन और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है”।6 ऐसा नहीं है कि दलित साहित्य में 80 के दशक से ही प्रारंभ हुआ साहित्य में प्रारंभ से प्रेमचंद निराला इत्यादि लेखकों ने हाशिए लोगों के प्रति हमारी गहरी संवेदना व्यक्त की है दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है ।जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है इस विमर्श ने दलितों को केंद्र में रखकर उसके अनुभवों कष्टों और संघर्षों के स्वर को प्रकट करने कि संगठित कोशिश की है। दलित आंदोलन का वैचारिक आधार डॉक्टर अंबेडकर का जीवन संघर्ष ज्योतिबा फुले तथा महात्मा बुद्ध का दर्शन और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि है सभी दलित रचनाकार से एक बिंदु पर एकमत हैं, कि ज्योतिबा फुले ने स्वयं क्रियाशील रहकर सामंती मूल्यों और सामाजिक गुलामी के विरोध का स्वर तेजी से किया था। ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व के विरोध में आंदोलन खड़ा किया था यही कारण है कि जहां दलित रचनाकारों ने ज्योतिबा फुले अपना विचार आना वहीं डॉ अंबेडकर को अपना शक्तिपुंज स्वीकार किया अंबेडकर मानते थे, दलितों के उत्थान से ही राष्ट्र का उत्थान है दलित चिंतन में राष्ट्रपति परिवार या कौम के रूप में है जबकि ब्राह्मण के चिंतन में राष्ट्रहित रूप में मौजूद नहीं है उनकी यहां एक ऐसी राष्ट्र की परिकल्पना जिसमें सिर्फ दि्ज है, यहां ना दलित ,है ना पिछड़ी जातियां ,अल्पसंख्यक इसलिए हिंदू राष्ट्र और हिंदू राष्ट्रवाद दोनों खंडित चेतना के रूप में दूसरे शब्दों में वर्ण व्यवस्था ही हिंदू राष्ट्र का मूल आधार है। इसलिए कंवल भारती के शब्दों में दलित मुक्ति का प्रश्न राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न है भारत के करोड़ों लोगों की जनता के लिए जो अलगाव का समाजशास्त्र और धर्म शास्त्र ब्राह्मणों ने निर्मित किया उसने राष्ट्रीयता को खंडित कर दिया था और इसी कारण भारत अपनी स्वाधीनता को बैठा था इसलिए दलित विमर्श के केंद्र में वह सारे सवाल है जिनका संबंध भेदभाव से है चाहे भेदभाव जाति के आधार पर हो ,रंग के आधार पर हो, नस्ल के आधार पर हो या लिंग के आधार पर या फिर धर्म के आधार पर ही क्यों ना हो। दलित चिंतकों ने इतिहास की व्याख्या करने की कोशिश की है, इनके अनुसार गलत इतिहास बोध के कारण लोगों ने दलितों और स्त्रियों को इतिहास हीन मान लिया है ,जबकि भारतीय इतिहास में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण है ।हिंदी साहित्य में दलितों के जीवन को केंद्र में रखकर अनेक किताबें लिखी गई जिसमें निराला , धूमिल, प्रेमचंद, रेनू, अमृतलाल नागर गिरजा किशोर, नागार्जुन आदि है। इन लेखकों ने दलित समाज को बिना किसी फेरबदल के ज्यों के त्यों प्रस्तुत किया।
समकालीन दलित साहित्य का स्वरूप निश्चित करने से पूर्व हमें उन घटकों की मानसिकता को समझना होगा जिनके द्वारा उनके इतिहास का निर्माण हुआ है। वस्तुतः देखा जाए तो दलित साहित्य डॉक्टर अंबेडकर के विचारों पर आधारित है। इसके अलावा प्रत्येक भारतीय भाषा ने अपने यहां समता आंदोलन के निर्माण किए हैं।कुछ समाज सुधारकों ने यह काम किया जिसे मलयालम साहित्य के श्रेष्ठ समतावादी महापुरुष श्री नारायण गुरु, तमिल साहित्य में रामास्वामी नायर कर, कन्नड़ साहित्य में म बसवेश्वर ।यह भी कहना गलत ना होगा कि प्रत्येक प्रांत में ऐसे महापुरुष हुए होंगे जिन्होंने समाज में दलितों के उत्थान के लिए आवाज उठाई उदाहरण के लिए हिंदी प्रदेश में कबीर से प्रेरणा ली जाती है। आधुनिक काल में किसी नेतृत्व के अभाव में कबीर, महात्मा फुले, और डॉक्टर अंबेडकर के विचारों को आदर्श मानकर ही दलित साहित्य आगे बढ़ रहा है। निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि भारतीय दलित साहित्य की जहां एक तरफ डॉक्टर अंबेडकर महात्मा बुद्ध के तत्व ज्ञान को मानता है वहीं दूसरी और उसकी वैचारिक में गौतम बुद्ध महात्मा, कबीर महात्मा, फुले, कार्ल मार्क्स और बाबा साहब के विचारों से भरी दिखाई देती है। भारतीय दलित साहित्य में आत्मकथा साहित्य उच्च स्थान लेकर आया है ।आत्मकथा समाज जीवन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है इसका एहसास दलित लेखकों ने करवाया हिंदी दलित साहित्य की शुरुआत ‘जूठन’ आत्मकथा से मानी जाती है। आज का समकालीन परिदृश्य भारी उथल-पुथल और गंभीर बहान मुबाहिसे की प्रक्रिया से गुजर रहा है राजनीति में मार्क्सवादी सकता को पूरी दुनिया से पूंजीवादी सकता ने अपदस्थ कर दिया था बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य का प्रभाव भारत में दलित आदिवासी स्त्री और सम्मुख श्रमिक समुदाय पर सबसे अधिक पढ़ता हुआ दिखाई देता है जिस धर्म को सामाजिक विज्ञान में बाधा मानते हुए कार्ल मार्क्स ने उसे अफीम कहा था उसी धर्म को डॉक्टर अंबेडकर ने भी दलित समुदाय के लिए दमनकारी माना दलित मुक्ति का प्रश्न भारतीय समाज परिवर्तन की दशा और प्रक्रिया के लिए अनिवार्य और महत्वपूर्ण प्रश्न है ।दलित वैचारिकी सामाजिक परिवर्तन के कार्यभार ओ सवालों और मुद्दों पर ही अपनी समझ रखते हैं ,बल्कि वह आर्थिक प्रश्नों पर भी अपने विचार व्यक्त करती है।जाति मुक्त समाज के साथ-साथ वर्ग विहीन समाज का सपना भी दलित वैचारिकी में शामिल है। डॉक्टर अंबेडकर स्पष्ट कहते हैं कि “जब तक वर्ग है समाज की स्थापना नहीं की जाती तब तक स्वतंत्रता का महत्व नहीं है”6 वरिष्ठ दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कहा कि” दलित साहित्य भाषावाद जातिवाद क्षेत्रवाद को नकार ता है ,तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है ।दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देते हैं जिसकी पहचान इतिहास के प्रश्नों से सदा के लिए मिटा दी गई जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गई।“7
संदर्भ ग्रंथ सूची
1 ‘हिंदी उपन्यास में दलित वर्ग’, डॉक्टर कुसुम लता मेघवाल प्रश्न 1
2। हिंदी काव्य में दलित काव्य धारा माता प्रसाद प्रश्न संख्या 3
3 वेबदुनिया हिंदी साहित्य और दलित विमर्श प्रो. रमा दलित साहित्य की भूमिका कवंल भारती पृष्ठ संख्या 67
4 साहित्य में दलित चेतना( लेख )दयानंद बटोही पश्यन्ती त्रैमासिक
5 दलित स्त्री तक से अब तक लेख राखी चौहान अपेक्षा संयुक्त अंक जून 2014 पृष्ठ 134
6 दलित साहित्य की भूमिका कवंल भारती
7 दलित साहित्य और सामाजिक संदर्भ (लेख) ओमप्रकाश वाल्मीकि ,शिखर की ओर ,संपादक डॉ एन सिंह पृष्ठ 406
8 संदर्भ: समकालीन परिदृश्य में दलित साहित्य अभिव्यक्ति 2001 के बाद, शोधार्थी मोहर सिंह बैरवा, कोटा विश्वविद्यालय
ज्योत्सना आर्य सोनी
असिस्टेंट प्रोफेसर आदर्श कॉलेज बेंगलुरु
एस के डीयूनिवर्सिटी हनुमानगढ़ शोधार्थी