May 20, 2023

62. किन्नर विमर्श : एक दृष्टि – रश्मि गुप्ता

By Gina Journal

Page No.: 446-451       

किन्नर विमर्श : एक दृष्टि – रश्मि गुप्ता

विमर्श का अर्थ होता है जीवंत बहस, जब हम समाज में किसी भी समस्या है स्थिति को एक ही दृष्टि से ना देखकर भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखते हैं उन पर विचार करते हैं उनकी समस्या का समाधान करने का विचार करते हैं। वर्तमान दौर विमर्शो का दौर है जिसमें स्त्री दलित आदिवासी आदि समुदाय को रखा जा चुका है इसके बाद अब किन्नर समुदाय इस विमर्श के केंद्र में है। विमर्श अपने आप में एक अहिंसक एवं संवेदनशील आंदोलन है जिसमे एक समुदाय अपनी समस्याओं को समाज, सत्ता एवं मुख्यधारा तक पहॅुचाना चाहता है जिससे उनका जीवन भी एक सामान्य जीवन जी सके। किंतु किन्नर समुदाय आरंभ से ही हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं क्योंकि समाज उनको एक मानव के रूप में भी नहीं देता उसको एक इंसान ही नहीं समझता समाज तो क्या उसका परिवार उसके अपने माता-पिता ही उसको अपने से दूर कर देते हैं ताकि उन्हें समाज में लोग उंगली ना उठाएं। उनकी मानसिकता एवं उनका जीवन इतने गौर अंधेरों में चला जाता है कि वह चाहकर भी अपने लिए कुछ कर नहीं पाते और समाज में अपने आपको श्रापित महसूस करने लगते हैं वह स्वयं को समाज के लिए एक कलंक बनती मानते हैं क्योंकि समाज की रूढ़िवादी परंपराएं समाज का अमानवीय व्यवहार उनके प्रति होता है यह उन्हें बहुत अंदर तक तोड़ कर रख देता है जिससे वह एक साधारण मानव का जीवन भी जी नहीं पाते हैं।

  कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है समाज में क्या-क्या चल रहा है समाज की समस्याओं को हमेशा साहित्य ने उजागर किया है साहित्य ने समाज की हर समस्या पर अपनी लेखनी चलाई है और अपनी लेखनी के द्वारा ही समाज के कई रूढ़िवादिता ओं को साहित्य ने दूर किया है कई सदी बाद ही सही किंतु वर्तमान में किन्नर विमर्श पर साहित्य लिखा जा रहा है जिससे हम उनके जीवन के बारे में उनके दुखों के बारे में जाने का एवं समाज एवं परिवार के लोगों का उनके प्रति दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। समाज संवेदनशील है तो इनके प्रति इतना कठोर कैसे हो सकता है। माता पिता ईश्वर के रूप में होते हैं तो मात्र किन्नर होने से अपनी संतान को संतान मानने से कैसे इंकार कर सकते हैं गहराई से विचार किया जाए तो इनमें इनका कोई भी दोष नहीं होता है इस बात को परिवार एवं समाज सभी को समझना चाहिए यह जैसे भी हैं ईश्वर के बनाए हुए ही हैं ईश्वर की बनाई कोई भी चीज कभी व्यर्थ नहीं होती बस हमारा देखने का नजरिया ही अलग होता है। किसी के दुख को कम नहीं कर सके तो उसके दुख को कतई बढ़ाना नहीं चाहिए। यमदीप में “नीरजा माधव कहती है जन्म का बधावा गाने के लिए हिजड़ों के समूह को प्रथम बार बहुत गहराई से देखा और महसूस किया एक अव्यक्त छटपटाहट और वेदना से भरी आंखें आंखें दिन का दोष क्या है प्रकृति के व्यवहार मजाक को ढूंढने और अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर क्यों है यह लोग अपने परिवार गांव से बिछड़ कर एक असामान्य जीवन जीते हुए इन लोगों को क्या अपने माता-पिता भाई-बहन याद नहीं आते होंगे परिवार वाले भी इनसे बिछड़ता सामान्य जीवन जी पाते होंगे कैसी होती है इनकी आंतरिक जिंदगी क्या हमारी तरह नहीं ऐसा तो नहीं होता होगा अन्यथा क्यों इनका बाहरी स्वभाव उतना कड़ा और खट्टा होता है इनके खुर्द अरे मूंछ दाढ़ी से सराय चेहरे की तरह मेकअप के गहरे आवरण के पीछे यह अपने जीवन की किस बदरंगता को छुपाते फिरते हैं कौन लेता है इनके खाने-पीने और जीवन यापन का उत्तरदायित्व स्कूलों या सरकारी दफ्तरों के कुर्सियों पर क्यों नहीं बैठे दिखाई देते यह लोग? दलित आरक्षण जनजाति आरक्षण आदि की तरह क्यों नहीं इन्हें भी आरक्षण देकर देश के मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास किया जाता1।“

  किन्नर विमर्श पर सबसे पहले दृष्टि डालने वाली साहित्यकार नीरजा माधव ने अपने उपन्यास एवं देश में जो इनकी दशा का उल्लेख किया है वह सराहनीय कार्य है । नीरजा माधव ने अपने उपन्यास यमदीप को सार्थक नाम दिया है यमदीप जिस प्रकार नरक चौदस को दीपावली के 1 दिन पहले हम यम के नाम का दीप जलाते हैं और पीछे मुड़कर देखते नहीं है उसी प्रकार किन्नर संतान को जन्म देने के बाद हम उन को पीछे छोड़ देते हैं उनसे किसी प्रकार का रिश्ता रखना नहीं चाहते आखिर क्यों केवल एक जननांग ना होने के कारण इंसान इंसान नहीं रह जाता है क्या या इंसान होने की सिर्फ यही पहचान है कि उसके सारे अंग ठीक होने चाहिए विकलांग बच्चे को जब हम पालते पहुंचते बड़ा करते हैं पढ़ाते हैं लिखाते हैं अपने प्यार से वंचित नहीं करते तो फिर किन्नर संतान को ही क्यों त्याग देते हैं जबकि यह सब को अच्छी तरह से मालूम है कि इनमें इनका कोई भी दोष नहीं होता है यह जैसे भी है इनको भगवान ने बनाया है और भगवान की बनाई हुई हर चीज का सम्मान करना चाहिए तो फिर इनको ही क्यों हम नरक के दंश में झेलने के लिए भेज देते हैं इनको क्यों यह समाज अपनता नहीं है। आखिर इनमें इनका दोष ही क्या होता है जो समाज इनसे दूर भागता है। आज समाज बहुत ही मॉडर्न बन चुका है सोच विचार से लेकर के पहनावे उड़ावे तक तो फिर इनके प्रति ही क्यों सोच नहीं बदली जाती है ? “किन्नर के रूप में पैदा होने के लिए ना तो किन्नर दोषी होता है और ना ही उसके जनक जननी। किन्नर होना महज एक प्राकृतिक त्रुटि है ठीक वैसे ही जैसे कि शरीर के अंगों में विकार होना। शरीर के अन्य अंगों में त्रुटि के साथ पैदा होने वाले किसी बच्चों को समाज और परिवार सहज स्वीकार कर लेता है परंतु अगर किसी के घर पर हमला बच्चे का जब हो जाए तो मैं एक सामाजिक अवमूलयं का कारण बन जाता है मातम से भी ज्यादा घातक।“2

  थोड़ा विचार करिए यदि समाज इन को अपनाता है परिवार को अपनाता है तो क्यों यह जीते जी नर्क का भोग करेंगे यह भी पढ़ लिखकर कुछ बन पाएंगे यह भी समाज के एक नागरिक हैं समाज में कदम से कदम मिलाकर चलने का अधिकार सभी नागरिकों की तरह इनका भी है तो फिर क्यों इन्हीं के साथ इतना भेदभाव किया जाता है महेंद्र भीष्म के उपन्यास में पायल में पायल किन्नर अपने दुख को बताते हुए कहती है “एक व्यक्ति इस जीवन में अपने अनुसार स्वतंत्र जी नहीं सकता क्या? मुझे मालूम है कि मैं एक किन्नर हूं , तो क्या करना होना अपराध है , जो उसे उसके स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश किया जा रहा है। क्या एक किन्नर को बधाई टोली के अलावा अन्य कार्य तो नहीं सौंपा जा सकते । 3” इनके दुख दर्द को समझना तो दूर के बाद इनकी तरह आंख उठा कर देखना अभी यह समाज पसंद नहीं करता है इनकी मात्र यही पहचान रह गई है कि यह शादी विवाह पर जाते हैं और पैसे मांगते हैं लेकिन कभी किसी ने यह जाने का प्रयास नहीं किया कि यदि किसी को रोजगार नहीं मिलता है कोई काम नहीं मिलता है तो वह भीख नहीं मांगेगा तो क्या मांगेगा भगवान ने पेट तो सभी को दिया है क्या समाज ने कभी इस पर विचार किया है यदि नहीं किया है तो अब करने की अत्यंत आवश्यकता है अगर समाज मॉडर्न बनता है तो हर प्रकार से बनना चाहिए मात्र पहनावे से और रहन-सहन से नहीं अपनी पुरानी सोच विचार और रूढ़िवादिता को दूर करके भी मॉडल बनना चाहिए।

  “ सभ्य समाज से निराश्रित. ,बहिष्कृत एवं तिरस्कृत यह वर्ग दो वक्त की रोटी का मोहताज होने के साथ ही अकेलेपन एवं अजनबी पन की पीड़ा को झेलने के लिए भी बाध्य है समाज इन्हें प्रतिपल होकर तो मारता ही है साथ ही भद्दी गाली और उपहास उड़ा कर पुरस्कृत भी करता है। 4” यद्यपि आलोक लिंग की दृष्टि को देखते हुए भले ही अपूर्ण होते होंगे परंतु मानवीय गुणों के रूप में प्रेम भावुकता करुणा आदि प्रवृत्तियां स्वाभाविक रूप से उनके अंतस में विद्यमान होती है। वे उन्हें व्यक्त करना चाहे भी तो समाज का नफरत भरा रवैया उन्हें इसका अवसर ही नहीं देता समाज हर वक्त उन्हें दुत्कार था और गालियां देता है जिससे उनका हृदय पूर्ण रूप से टूट चुका होता है।  समाज में हम कितने भी आगे क्यों ना बढ़ जाए लेकिन किसी को पीछे रख कर के आगे बढ़ना किसी काम का नहीं है।

   आज का समाज कब बदलेगा? कब किन्नर समाज का हिस्सा बनेंगे? कब उन्हें उनका वास्तविक सम्मान मिलेगा? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है जब समाज की मानसिकता बदलेगी उनके विचारों में परिवर्तन होगा तभी यह संभव होगा। किन्नर उस गलती की सजा भुगत रही है जो उन्होंने कभी की भी नहीं है।

   जब महिलाओं ने अपने सामाजिक भूमिका को लेकर सोचना विचारना आरंभ किया वहीं से स्त्री आंदोलन स्त्री विमर्श आदि संदर्भों पर बहस आरंभ हुई यही हाल दलित और आदिवासी आंदोलन का बिरहा। स्त्री विमर्श में जहां एक और स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का प्रयास हुआ और उनकी राजनीतिक सामाजिक भागीदारी को स्वीकार किया तो वही स्त्री विमर्श ने स्त्री को बहस के केंद्र में लाने का प्रयास किया विमर्श का यह सिलसिला हर वर्ग और समुदाय से उठता रहा। जिसमें एक और समाज में उसके दोयम दर्जे की स्थिति को बताया और दूसरी और उनसे जुड़े समस्याओं को मुद्दों को बहस के जरिए केंद्र में रखा गया स्त्री आदिवासी दलित आदि विमर्श के इस बिंदु को अगर हम प्रस्थान बिंदु मार्ले तो इस विमर्श के आगे जो कुछ घटित हुआ वह काफी रोचक है पूर्णविराम किसी एक विमर्श के खड़े होने में उसके समांतर दूसरे विमर्श का होना उसके बढ़ने के लिए खाद पानी का काम करता है। एक बड़ा विमर्श है यह उभरता है जेंडर का जिसमें स्वतंत्रता समानता और अस्मिता जैसे प्रश्नों को उठाया जाता है लिंग का प्रश्न अस्मिता के प्रश्न के भीतर से ही उभरता है। यह विमर्श इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां पर तो किसी को मनुष्य ही माना नहीं जा रहा है यहां मनुष्य और मनुष्य में ही अंतर किया जा रहा है किन्नरों को मनुष्य का ही दर्जा नहीं मिल रहा तो इनके स्वतंत्रता समानता की बात यह समाज कैसे करेगा। क्योंकि समाज किन्नर समुदाय को निरंतर ही अनदेखा करता आया है और उसे हाशिए पर धकेलते चला आया है। त्रासदी तो यह है कि माता-पिता भी ऐसी संतान को अपने पास नहीं रखना चाहते उन्हें समाज का डर होता है कि समाज क्या कहेगा? और इस तरह एक बच्चा अपने समस्त भविष्य को अंधकारमय करता हुआ हिजड़ो के समूह में मिल जाता है। अधिकतर माता-पिता समाज के दर से स्वयं अपने किन्नर संतान को अपने पास नहीं रखना चाहते पूर्णविराम ऐसे बच्चों को विवश होकर किन्नर समुदाय में सम्मिलित होना पड़ता है और उस समाज में सम्मिलित होने के बाद उनके गणित जीवन जीने की व्यवस्था उनके प्रति समाज की संकुचित मानसिकता को रेखांकित करती है।

किन्नर समुदाय हमारे समाज का ऐसा समुदाय है जिसके विषय में चर्चा बहुत कम होती है इसलिए उनके विषय में जानकारी भी बहुत ही कम है। सामान्य जन तो इनके बारे में केवल इतना ही जानते हैं कि यह खुशी के अवसर पर आते हैं और मोटी धनराशि की उगाही कर चले जाते हैं। समाज में उनकी छवि नकारात्मक ही अधिक दिखाई देती है। भीख मांगना में वेश्यावृत्ति जैसे नकारात्मक कार्य करते भी नहीं देखा जाता है वहीं के जीवन का एक उजला पक्ष में हमारे सामने है जहां इस वर्ग ने विभिन्न व्यवसाय में अपने कुशलता को सिद्ध करते हुए राजनीति व समाज सेवा जैसे कई क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है लेकिन यह प्रतिशत बहुत कम है आता अब हम सबको प्रयास करना चाहिए के समाज का यह उपेक्षित वर्ग अभी एक सामान्य जीवन जिए इनको घृणा की दृष्टि से नहीं मानवता की दृष्टि से देखने के आवश्यकता है इन्हें समाज से तिरस्कृत नहीं बल्कि समाज में लाने का प्रयत्न करना चाहिए प्रत्येक माता-पिता को अपने किन्नर संतान का भी पालन पोषण इसी तरह से करना चाहिए जैसे कि वह 1 विकलांग बच्चे या सामान्य बच्चे का करते हैं उनको भी वही प्रेम सहानुभूति ममता एवं करुणा की आवश्यकता है जो सभी सामान्य बच्चों को मिलती है तभी ये किन्नर समाज सामान्य रूप से जीवन जी सकता है और अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है जब किन्नर अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तो जगह-जगह जाकर भीख एवं बधाई मांग करके अपना भरण-पोषण नहीं करेंगे वह भी समाज में अपना योगदान दे सकेंगे।

संदर्भ सूची

  1. यमदीप, नीरजा माधव, पृष्ठ संख्या 25
  2. लैंगिक विमर्श और यमदीप, हर्षिता द्विवेदी, पृष्ठ संख्या 88
  3. मैं पायल, महेंद्र भीष्म, पृष्ठ संख्या 99
  4. किन्नर विमर्श साहित्य के आईने में, डॉ इसरार अहमद , पृष्ठ संख्या 24।

रश्मि गुप्ता

शोधार्थी

किन्नर विमर्श

छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय

कानपुर