61.समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श और ग्रामीण स्त्रियाँ – रुचि कुमारी
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समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श और ग्रामीण स्त्रियाँ – रुचि कुमारी
आज विमर्शों का दौर है | जहाँ तमाम तरह के विमर्श – नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, पुरुष विमर्श, किन्नर विमर्श आदि प्रचलन में है | विमर्श का सामान्य अर्थ होता है – समाज द्वारा उपेक्षित, शोषित, दमित व्यक्तियों और समाज को केंद्र में लाना | हालांकि स्त्री विमर्श या नारी विमर्श जैसे शब्द आते ही हमारे विचार में पुरुष एक नाकारात्मक चरित्र के रूप में उपस्थित हो जाता है | कई ऐसे स्त्री विमर्श से जुड़े साहित्य है, जिसे पढ़ने के बाद पुरुष समाज,पुरुष वर्ग के लिये मन में घृणा का भाव उभरने लगता है | लेकिन स्त्री विमर्श का ये कहीं से अर्थ नहीं है कि यह पुरुष विरोधी विचारधारा है | बल्कि स्त्री विमर्श पितृसत्ता के विरुद्ध उठे आवाज है | जिसने स्त्रियों को स्त्री बनाया, कमजोर और अबला समझा | पितृसत्ता एक विचारधारा है जो किसी भी वर्ग, किसी भी जाति या किसी भी समुदाय में हो सकती है | यही कारण है कि स्त्रियाँ भी स्त्री को कमजोर बनाने में, उनका शोषण करने में पुरुषों से भी आगे निकल जाती हैं | कहने का तात्पर्य है कि पितृसत्ता केवल पुरुषों में नहीं होती |
स्त्रियों का शोषण, उन पर अत्याचार बहुत पहले से ही होता आ रहा है | पितृसत्तात्मक विचारों को उन पर थोपा जाता रहा है, जिससे वो एक इंसान नहीं बल्कि गुलामों जैसी जिन्दगी गुजारने पर विवश रही हैं | जिसका एक लंबा इतिहास रहा है | पितृसता एक ऐसी विचारधारा है जो न सिर्फ स्त्रियों के लिये खतरा है बल्कि पुरुषों के लिये भी उतना ही खतरनाक है | जैसे पितृसता स्त्रियों को अपना गुलाम बनाता है, वैसे ही पुरुष भी पितृसत्ता के गिरफ्त में है | इसलिए जरूरत है इस पितृसत्तात्मक विचारधारा को तोड़ने की | क्योंकि स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक समाज, पितृसत्तात्मक सोच और विचारों से मुक्ति की आह्वान है | पितृसत्तात्मक विचार कोई आज की नई विचारधारा नहीं है | यह सदियों पुराना है, जिससे स्त्रियों को मुक्ति की आवश्यकता है | रामविलास शर्मा ने पितृसता को पूंजीवाद से जोड़कर देखा है | उनका कहना है कि “पुराना पितृसत्तात्मक समाज जिसमें उसे गृहलक्ष्मी कहकर वास्तव में गृहदासी बनाया जाता है तथा उसका आना एक अशुभ कदम माना जाता है, उसे पिछड़े रहने के लिये बाध्य किया जाता है, इन सब से मुक्त होना चाहिए | पितृसत्तात्मक समाज पूंजीवाद का प्रतीक रहा है | जिस प्रकार पूंजीपति शोषण करता है, क्योंकि उसके पास धन है, शक्ति है, सारी व्यवस्था उस पर निर्भर है, इसी प्रकार पुरुष धन लाता है, जिससे गृहस्थी की व्यवस्था चलती है | घर के स्त्री सदस्य धन के लिए उसका मुंह देखते हैं | यही निर्भरता की भावना पुरुष को शासक बना देती है और शोषण करने का भाव पैदा होता है | पूंजीवादी व्यवस्था के संस्कार समाज के स्त्रियों, पुरुषों में बहुत गहरे तक पैठे हुए हैं | उससे मुक्त होना आवश्यक है | स्त्री को परिवार, समाज में पुरुषों के बराबर दर्जा मिलना चाहिए | पढ़ने – लिखने का समान अवसर मिलना चाहिए और पढ़ – लिख कर हर स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की ओर प्रवृत्त होना चाहिए | किसी क्षेत्र में किसी दृष्टि से अपने को कमजोर रखना व शक्तिशाली का मुखापेक्षी होना हमेशा दासता का कारण बनता है | इस स्थिति से नारी को मुक्त होना चाहिए |“1 अतः समाज में फैले इस व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता है | जहाँ पितृसता विचार को स्त्रियों पर थोपा गया है | जो महज स्त्रियों के लिये नहीं बल्कि पूरे समाज के लिये खतरा है | इसलिए “पुरुष से या पुरुष मात्र से विरोध करना उचित नहीं है | हाँ लक्ष्य स्त्री को हीन मान कर चलना है तो उसका विरोध करना चाहिए | समाज में बहुत से ऐसे पुरुष होंगे जो समाज की व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, उनके साथ मिलकर काम करना चाहिए | सभी पुरुष शोषक नहीं होते, सभी स्त्रियाँ शोषित नहीं होती | कहीं कहीं विपरीत स्थिति भी देखी जाती है |“2 समाज को मानवता की दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है स्त्रीवादी या पुरुषवादी दृष्टिकोण से नहीं |
स्त्री और स्त्री मुक्ति की समस्या समाज में प्राचीन काल से बनी हुई है, लेकिन आज तक उसका कोई समाधान नहीं दिखाई देता है | पितृसत्तात्मक समाज को मिटाना कहीं से स्त्रीवादी हो जाना नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक समाज को बदलने की जरूरत है | जहाँ स्त्री को एक इंसान होने का दर्जा मिले | उन्हें समाज का हिस्सा माना जाये | स्त्री होने मात्र के कारण उन्हें दबाया नहीं जाये, उनका शोषण न हो | एक समय ऐसा भी था जब स्त्री और पुरुष दोनों दास हुआ करते थे अर्थात दासता का दर्द उसकी टीस दोनों में है | लेकिन आज का जो समाज है, यहाँ जो सत्ता में है, जो ताकतवर है, वो तानाशाह रूप में विद्यमान है, वो अपने आस – पास के कमजोर लोगों को दास बनाकर उसका सुख भोगना चाहते हैं | जॉन स्टूअर्ट मिल के अनुसार, “प्राचीन काल में बहुत से स्त्री – पुरुष दास थे | फिर दास प्रथा के औचित्य पर प्रश्न उठने लगे और धीरे – धीरे यह प्रथा समाप्त हो गयी | लेकिन स्त्रियों की दासता धीरे – धीरे एक किस्म की निर्भरता में तब्दील हो गयी | मिल स्त्री के निर्भरता को पुरातन दासता की ही निरंतरता मानते हैं जिस पर तमाम सुधारों के रंग – रोगन के बाद भी स्त्री – पुरुष असामानता के मूल में ‘ताकत’ का वही आदिम नियम है जिसके तहत ताकतवर सब कुछ हथिया लेता है |“3 स्पष्ट है सत्ताधारी और शोषक वही होते हैं जो ताकतवर है | जरूरत है ऐसे शोषक वर्ग की ताकत को कम करने की | ताकतवर या शोषक कोई भी हो सकता है – व्यक्ति, वर्ग, जाति, समाज, देश, स्त्री, पुरुष | इन में से जो भी मजबूत होगा वो अपने से कमजोर व्यक्ति, वर्ग, जाति, समाज, देश, स्त्री या पुरुष का शोषण करता आया है |
स्त्री विमर्श, विमर्श के रूप में साहित्य में तब आया जब स्त्रियाँ शिक्षित होने लगी, अपने अधिकारों को जानने – समझने लगी, शोषण और शोषक को पहचानने लगी, पितृसत्तात्मक समाज के संरचना को समझने लगी तथा इन सब के विरोध में आवाज उठाने लगी | अपने उपर हुए शोषण, अत्याचार को शब्दबद्ध करने लगी | साहित्य के माध्यम से समाज के सामने उसे रखने का साहस किया | जिसे आज हम स्त्री विमर्श के रूप में देखते हैं, समझते हैं | “समकालीन हिन्दी कथा – लेखन के विवेचन के क्रम में यह तथ्य खुलकर सामने आता है कि परंपरागत मान्यताएँ, कालबाह्य रूढियाँ, पुरुष – प्रधान समाज में होने वाले अन्याय और अत्याचार के खिलाफ़ आज नारी कदम उठाने का साहस कर रही है |“4
समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श की बात करें तो जो भी साहित्य ‘स्त्री विमर्श’ को केंद्र में रखकर लिखे गये हैं, उनके रचनाकार शिक्षित हैं, महानगरीय जीवन जी रहे हैं या जी रही हैं | वो पढ़ी – लिखी हैं और लगभग सभी स्त्री रचनाकार जो स्त्री विमर्श की रचनाएं लिख रही हैं, वो ठीक – ठाक या संपन्न परिवार से संबंध रखती हैं | जहाँ उन्हें पढ़ाया – लिखाया गया है | उन्हें पितृसता समाज की पहचान है, वो इस शब्द से भली – भाँति परिचित हैं | उनकी रचनाओं में हम स्त्री चेतना, स्त्री स्मिता को देख सकते हैं | उनकी विकसित दृष्टि का परिणाम है कि वो आज अपने पर हुए हर एक दबाव, शोषण, उन पर लगाये गये बेड़ियों को पहचानती हैं | वो अपने विचार समाज के सामने रखने लगी है, तर्क करने लगी है | कृष्णा सोबती लिखती हैं – “स्त्री एक देह है और उसके सुखों की संकलीनाएँ भी संस्थाबद्ध है | स्त्री के लिये एक अलग दृष्टिशास्त्र भी समाज ने रच दिया है | उसके अनुसार देह में यदि दिमाग, विचार शामिल हो जाएं तो परिवार संस्थान में उथल – पुथल से समाज में अनर्थ होगा | पुरुष के भीतर नारी और नारी के भीतर पुरुष की पारस्परिकता के सिद्धांत के अनुसार पुरुष और नारी का पृथक शारीरिक अस्तित्व भी एक वृहत्तर संरचना के भीतर रचा हुआ है | पर उसे शिक्षा, विचार और चिंतन से दूर रख पारिवारिक संस्था ने नारी को संस्कारिक सुख – साधन व्यवस्था का प्रतीक बना दिया |“5 स्त्री विमर्श के माध्यम से स्त्रियों ने पितृसत्तात्मक समाज को यह बता दिया कि स्त्रियों में दिमाग और विचार भी है | वो सोच – विचार कर सकती है | उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार है | वो अपनी मर्जी के मालिक है, जैसे पुरुष होते हैं | कुछ चीजें जो उन पर संस्कृति के नाम पर, स्त्री होने के कारण थोपी गयी थी, उसका उन्होंने विरोध किया | चूड़ी, बिंदी, सिंदूर का विरोध उन्होंने स्त्री जीवन को घेरने वाले प्रतीक कहकर किया | “स्त्री – जीवन को घेरने वाले प्रतीकों में यदि ताकत की दृष्टि से कोई क्रम निर्धारित किया जाये तो सिंदूर का स्थान उसमें चूड़ी के आस – पास ही ठहरेगा | चूड़ी कलाई को घेरती है और स्त्री को स्वं दिखाई देती है |“6
आज स्त्रियाँ सभी कानून और दांव – पेंचों को समझते हुए उनसे जुझते हुए जी रही हैं और अपने उपर लगे सभी बेड़ियों को तोड़ने का हिम्मत और साहस रखती हैं और तोड़ भी रही हैं | अपनी आत्मकथाओं में अपने उपर हुए शोषण को लिखकर समाज के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं | क्योंकि आज की “स्त्री पढ़ रही है भविष्य, लहूलुहान सिंदूरी सपने, हत्यारी भाषा – परिभाषा, जाति – धर्म और कानूनों की, घरे – बाहिरे, आदेश – उपदेश – अध्यादेश, चाल – चलन – चरित्र और भेष, नैतिकता और मर्यादा के नये – पुराने पाठ और इनके पीछे छिपी साठ – गाँठ |“7 अतः अब स्त्रियाँ कमजोर और अबला नहीं है, ना वो मंदिरों में पूजी जाने वाली देवी हैं, बल्कि वो एक इंसान हैं, मानव हैं | उनके अंदर मानवता रचती – बसती है |
जब हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं तो उसके केंद्र में मुख्यतः पढ़ी – लिखी, महानगरीय जीवन जी रही स्त्रियाँ ही होती हैं | जिन्हें कानूनी अधिकारों की समझ है, जिन्हें स्त्री शोषण की पहचान है | जो विभिन्न देशों के साहित्य को पढ़ती हैं, समझती हैं और अपनी रचनाओं में व्यक्त करती हैं | जिन्हें समाज में, सम्पत्ति में और राजनीति में अपनी हिस्सेदारी की समझ है | ये सभी पढ़ी – लिखी स्त्री होती हैं | इन सब में ग्रामीण स्त्रियाँ एक सिरे से गायब है | क्योंकि ग्रामीण स्त्रियाँ ज्यादतर पढ़ी – लिखी नहीं होती हैं | देश – दुनिया के कानून नहीं जानती | शिक्षित नहीं होने का मतलब ये नहीं है कि वो शोषित नहीं हैं |
ग्रामीण स्त्रियाँ शोषित भी हैं और अधिकारों के प्रति सजग भी | लेकिन उनका अधिकार क्षेत्र शहरी और शिक्षित स्त्रियों के अधिकार से अलग है | कहा यह भी जाता है कि ग्रामीण स्त्रियाँ, महानगरों की स्त्रियों की अपेक्षा कम शोषित है | सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है? क्योंकि वो भी स्त्री है और चूंकि ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी जयदातार शिक्षित नहीं हैं, वो आज भी शिक्षा से वंचित हैं | इस लिहाज से ग्रामीण स्त्रियाँ ज्यादा शोषित और दमित हैं – समाज द्वारा भी और व्यवस्था द्वारा भी | समकालीन साहित्य में यदि हम स्त्री विमर्श का अध्ययन करते हैं तो ग्रामीण स्त्रियों की दशा से वंचित रह जाते हैं | इसके लिये हमें ग्रामीण साहित्य में आये स्त्री पत्रों के माध्यम से उनके स्थितियों का अध्ययन करना होता है | हालांकि ग्रामीण और निम्न वर्ग की स्त्रियों के विषय में कहा जाता है कि वो मध्य वर्ग की स्त्रियों की तुलना में अधिक स्वाधीन हैं | इस विषय में रामविलास शर्मा का कहना है कि, “जो निम्न वर्ग की स्त्रियाँ श्रम करती हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक स्वाधीन हैं, क्योंकि पुरुषों पर उतनी निर्भर नहीं हैं | इसलिए उनकी समस्या जटिल नहीं है | आर्थिक रूप से स्वतंत्रत होने के कारण उच्च वर्ग की स्त्रियों की समस्या दूसरी तरह की है और मध्य वर्ग की स्त्रियों की समस्या इन दोनों वर्गों की स्त्रियों की समस्याओं की तुलना में भिन्न है | जहाँ तक नैतिक मूल्यों की बात है, इनका दबाव भी सबसे अधिक मध्य वर्ग पर है | निम्न वर्ग की स्त्रियाँ नैतिकता को अपने सहज जीवन में उतना महत्व नहीं देती और अपेक्षाकृत स्वच्छंद जीवन जी लेती हैं | नैतिक मूल्यों की अवहेलना करना उच्च वर्ग की स्त्रियों के लिये आसान है | उनकी नकल न करनी चाहिए | जो श्रमिक वर्ग की स्त्रियाँ हैं, वे मेहनत करती हैं, नैतिक मूल्यों की परवाह नहीं करती, लेकिन वास्तव में उनका जीवन अधिक नैतिक होता है, क्योंकि नैतिकता उन पर आरोपित नहीं होती | वे स्वभावतः एक नैतिक जीवन जीने की ओर बढ़ती है, उन्हें देखना चाहिए | चूंकि वे परिश्रम करती हैं, परजीवी नहीं हैं, वे पुरुषों के गुलाम नहीं हैं, इसलिए उनसे सीखना चाहिए |“8
प्रेमचंद और रेणु के साहित्य में ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति को देखा जा सकता है | जहाँ कई जगह पर स्त्री पात्र, पुरुष पात्र से मजबूत और सजग हैं | गोदान की धनिया, होरी की तुलना में ज्यादा चेतनाशील प्राणी है | वो शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में होरी से बहुत आगे है | इसी तरह नागार्जुन के साहित्य में ग्रामीण स्त्री की शोषण, उन पर हुए अत्याचार और संघर्ष को देखा जा सकता है | ‘रतिनाथ की चाची’ में एक ग्रामीण स्त्री के दयनीय स्थिति को देखा जा सकता है, जो “देवर से प्रेम के चलते गर्भवती हुई तो मिथिला के पिछड़े सामंती समाज में हलचल मच गयी | गर्भपात के बाद तिल – तिल कर वह मरी“9 इससे आगे की कथा है ‘कुच्ची का कानून’ जो अपनी मर्जी से अपने कोख पर अपना अधिकार की बात करते हुए पति के मृत्यु के बाद गर्भवती होती है, जिसका विरोध समाज और पंचायत द्वारा होता है, लेकिन कुच्ची किसी से डरती नहीं है, वो पंचायत के सामने अपने कोख पर अधिकार की बात करती है और पंचायत से सवाल करती है – “जब मेरे हाथ,पैर, आँख कान पर मेरा हक है, इन पर मेरी मरजी चलती है तो कोख पर किसका होगा, उस पर किसकी मरजी चलेगी, इसे जानने के लिये कौन – सा कानून पढ़ने की जरूरत है? “10 उसके बाद वो दृढ़ता से पूरे पंचायत से पूछती है कि, “ मेरी गोद भरने से, मुझे सहारा मिलने से गाँव की नाक कैसे कट जायेगी बाबा? क्या मेरे भूखे सोने से गाँव के पेट में कभी दर्द हुआ? जब मेरी भूख पूरे गाँव की भूख नहीं बनती, मेरा डर पूरे गाँव डर नहीं बनता तो मेरे किये हुए किसी काम से पूरे गाँव की नाक कैसे कट जायेगी? “11 कुच्ची स्त्री से जुड़े अहम सवाल को पूरे समाज के सामने रखती है | जो एक जीवंत सवाल है, हर स्त्री का सवाल है | इसे स्त्री विमर्श के कसौटी पर रख कर देखा जा सकता है |
ग्रामीण स्त्रियों के स्त्री विमर्श में लक्ष्य बड़े नहीं हैं, लेकिन आशय बड़े हैं | यहाँ अन्याय व शोषण के खिलाफ़ प्रतिरोध का दायरा व्यापक नहीं है किन्तु उसमें अद्भुत गहराई है | यहाँ शक्ति के संचयन, सुनिश्चित संघर्ष और जीत हासिल करने का कोई रोडमैप नहीं है, किन्तु ये आख्यान अनुभूति की गहराई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यथार्थ के सत्यापन से ओत – प्रोत हैं | इसमें अनपढ़, गरीब, विस्थापित, बाल – व्याहिता, श्रमिक, शोषित व उपेक्षित वर्ग की साधारण स्त्रियों का जिंदगीनामा है, जिसमें न हार की फिक्र है, न जीत की, बस संघर्ष ही संघर्ष है, वेदना ही वेदना है |
संदर्भ ग्रंथ सूची :
- स्त्री मुक्ति के प्रश्न, रामविलास शर्मा, गोदरण प्रकाशन, सं 2012, पृ. 61.
- वही, पृष्ठ 62.
- स्त्रियों की पराधीनता, जॉन स्टूअर्ट मिल, राजकमल प्रकाशन, हिन्दी अनुवाद, आवरण पृष्ठ.
- समकालीन हिन्दी कथा लेखन और स्त्री विमर्श, डॉ. स्मिता जैन, पृष्ठ 2.
- चूड़ी बाजार में स्त्री, कृष्ण कुमार, राजकमल प्रकाशन, आवरण पृष्ठ.
- वही, पृष्ठ 136.
- भूमिका,बेड़ियाँ तोड़ती स्त्री, अरविंद जैन,राजकमल प्रकाशन, 2022, पृष्ठ 9.
- स्त्री मुक्ति के प्रश्न, रामविलास शर्मा, गोदारण प्रकाशन, 2012, पृष्ठ 62-63
- रतिनाथ की चाची, नागार्जुन, आवरण पृष्ठ, राजकमल प्रकाशन.
- कुच्ची का कानून, शिवमूर्ति, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 131.
- वही,पृष्ठ 119.
रुचि कुमारी (शोधार्थी)
हिन्दी विभाग, दरभंगा हाउस,
पटना विश्वविद्यालय, पटना (बिहार)
अशोक राजपथ, पिन. -800005.
पता :- परम निकेतन छात्रावास, एनी बेसेंट रोड, अशोक राजपथ,
पटना, पिनकोड – 800005. (बिहार)