May 23, 2023

89. समकालीन हिंदी साहित्य में नारी विमर्श – डॉ . संदीप कुमार

By Gina Journal

Page No.: 636-643

समकालीन हिंदी साहित्य में नारी विमर्श – डॉ . संदीप कुमार

शोध सारांश :—

समकालीन हिंदी साहित्य के गद्य और पद्य दोनों ही रूपों में नारी विमर्श की तीव्र अनुगूंज सुनाई पड़ रही है । नारी विमर्श, नारी शोषण के विरोध में पितृसत्ता के खिलाफ चलाया जा रहा एक आंदोलन है । नारी शोषण जिसका अंतहीन आरंभ नारी के जन्म से पूर्व कन्या भ्रूण हत्या के रूप में आरंभ हो जाता है और फिर क्रमशः बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव,वैवाहिक सौदेबाजी, रूप हीनता का दंश,दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा,कार्यस्थल पर यौन शोषण, बलात्कार,नारी अवमानना के रूप में निरंतर बढ़ता चला जाता है । समकालीन हिंदी साहित्य में नारी के दर्द और आंसू के साथ-साथ उसकी ललकार और तीक्ष्ण चुनौतियों की अनेकानेक भंगिमाएँ अंकित है परंतु मूल समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है । क्या है इसका समाधान ? मेरे विचारानुसार इसका समाधान स्वयं नारी के पास है । नारी आदिशक्ति है,मां है,रूपाकार देने वाली शिल्पी है । अतः उसे ही पितृसत्ता की बंदिशों को तोड़ते हुए बेटा और बेटी में अंतर किए बिना आगे आने वाली संतति में नये संस्कारों,नये विचारों,नये मूल्यों और नयी सोच का उजाला भरना होगा तभी होगा एक नवप्रभात जहां नारी खुलकर सांस ले सकेगी और जी सकेगी अपने लिये सम्पूर्ण  सम्मान के साथ ।

वर्तमान वैज्ञानिक और आपाधापी के युग में चारों तरफ अफरा-तफरी एवं अराजकता का माहौल है जिसमें व्यक्ति अपनी पहचान और अपने अस्तित्व को निरर्थक महसूस करता हुआ राजनैतिक,सामाजिक और आर्थिक स्तर पर व्यवस्था के अराजक हो जाने की हद तक अपने को चारों ओर ऐसे भयंकर जाल में फंसा हुआ पा रहा है जिसका समाधान आज के व्यक्ति का अहम सवाल है । नैतिकता धार्मिक आस्थाएं,प्रेम,पारस्परिकता और विश्वास जैसे मूल्य बोधक अवयव अपने पुराने अर्थ होते हुए से जान पड़ते हैं ।”आज संवेदना,अनुभूति की विशिष्टता,दृष्टिकोण की विविधता और किसी भोगी हुई स्थिति के प्रति जागरूकता ने एक ऐसी दृष्टि दी है- जिससे कविता समकालीन हो गई है । स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा और उसके लिए पहल तथा उस पहल के समर्थन में लिखा गया साहित्य ही समकालीन साहित्य है ।”1 हिंदी साहित्य के क्षेत्र में समकालीन साहित्य से अभिप्राय सन् 1960 के बाद लिखे जाने वाले साहित्य से है। आज चारों तरफ जो वातावरण बना हुआ है उसमें सम्पूर्ण मानव मूल्यों का पतन हो रहा है। इसलिए समकालीन हिन्दी साहित्य में धर्म और ईश्वर के प्रति गहरी अनास्था उत्पन्न होने लगी है तथा साहित्य में ईश्वर विहीन मानव समाज की चेतना का समग्र प्रतिबिंब प्रतिभाषित होने लगा है ।”एक तरफ सुविधा भोगी जीवन जीने की ललक है, समझौतावादी दृष्टिकोण है, सत्ता की शक्ति को दिखाने की होड़ है तो दूसरी तरफ बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी की बदहाली और शोषण से त्रस्त समाज की महत्वपूर्ण इकाई है – इन दोनों छोरों से गिरे हुए आदमी और उसके जीवन को लेकर आज का कवि और उसकी कविता चिंतित है – यह चिंता की एक ऐसी रेखा है कि जो भी विचारक, स्वप्नद्रर्ष्टा,दार्शनिक, कवि इसके जितना अधिक नजदीक है, वह उतना ही अधिक समकालीन है और जितना अधिक दूर है – वह उतना ही अधिक अप्रासंगिक ।”2 अतः समकालीन साहित्य वर्तमान युग के मानव का यथार्थ प्रस्तुत करता है |

विगत तीन-चार दशकों से हिंदी साहित्य में नारीवादी विचारधारा की कसमसाहट महसूस की जा रही है । साहित्यिक मंचों पर भी नारी विमर्श की चर्चा जोर पकड़ती जा रही है । क्या है यह नारी विमर्श। इसका सीधा और सरल जवाब है – नारी की वास्तविक स्थिति व उससे जुड़े अनेक मुद्दों का समग्र एवं सूक्ष्म चिंतन ।”यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:।”3 जब-जब स्त्री ने अपने को इस शोषित जड़ावस्था के विरुद्ध चेतन होने का नारा दिया तब-तब वह पीटी गयी, पीसी गयी । “स्त्री, भोग की जड़ पदार्थ नहीं है वह चेतन है, उसमें बौद्धिक क्षमता और ऊर्जा है । इसी जड़ के विरुद्ध चेतन होने का उद्घोष और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलाया जा रहा बौद्धिक संघर्ष ही नारी विमर्श है । यह पुरुषों को अधिकार विहीन करने का नहीं बल्कि पुरुषों द्वारा स्त्रियों के दबाये हुए अधिकारों को वापस लेने का संघर्ष है ।”4 इस संघर्ष के स्वर “एक नहीं दो-दो मात्राएं,नर से भारी नारी’ तथा ‘मुक्त करो नारी को युग युग की निर्ममकारा से ” के रूप में हिंदी साहित्य में समय-समय पर सुनाई पड़ते रहे हैं परंतु इधर कुछ वर्षों से इसका स्वर तीव्र से तीव्रतम हो गया है । जहां एक ओर मैत्रेयी पुष्पा,चित्रा मुद्गल,उषा प्रियंवदा,नासिरा शर्मा,मेहरुन्निसा परवेज,क्षमा शर्मा,जया जादवानी,सुधा अरोड़ा आदि साहित्यकारों ने रचनाओं के जरिए अहमवादी पुरुष सत्ता और वर्चस्व को चुनौती देने वाली,अपने अस्तित्व को तलाशने में संघर्ष स्त्री की एक नयी छवि उकेरने में लगी हुई हैं तो वहीं दूसरी ओर आशारानी बोहरा, इंदुजैन, स्नेहमयी चौधरी,मधु शर्मा, मणिका मोहनी, सविता सिंह आदि अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी के दर्द और उसकी टीस को, असहायता और विवषता को, विद्रोह और प्रतिकार को, संघर्ष और कर्मठता को, आक्रोश और ललकार को, आत्मविश्वास और जीवट को वाणी देकर नारी को उसका हक दिलाने में लगी हुई हैं ।

चित्रा मुद्गल के कथा साहित्य में पारिवारिक रिश्तों के साथ –साथ मूल्यों के बदलते स्वरूपका भी वर्णन किया गया है जिसमें उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ अढाई गज की ओढ़नी,वाइफ स्वैपी इत्यादिचर्चित हैं | चित्रा मुद्गल का मानना है कि “पितृसत्तात्मक समाज में सर्वविदित है कि अपनी सर्वोपरिता कायम रखने के लिए स्त्री को स्त्रीत्व की जो परिभाषा सौंपी गई है उसमें रूढ़ि की घेराबंदी ही नहीं,घोर असमानता और अमानवीयता के ऐसे अंधविश्वासी अनुशासन दृष्टिगत होते हैं कि एक क्षण को दिल दहल उठता है कि शक्ति रूपा प्रतिष्ठित की गई नारी की अस्तित्वगत सामाजिकता आखिर क्या है ?”5 अतः पुरुष वर्चस्व वाले समाज में बड़ी चालाकी से नारी को संपत्ति और सत्ता के उत्तराधिकार से वंचित कर दिया गया। रूढ़ियां इस कदर बढ़ी कि कन्या का जन्म बोझ लगने लगा,उसके जन्म के साथ ही हत्या का प्रचलन शुरू हो गया,उस से जीने का अधिकार तक छीन लिया गया। भ्रूण हत्या इसका विकसित रूप है ।

समकालीन नारी चिंतन जिसे नारी विमर्श भी कहा जाता है,नारी उसका जीवन और उस जीवन की समस्याओं का केंद्रीय विषय बनाता है । वह पारंपरिक ज्ञान और दर्शन को चुनौती देता है । जहां नारी ज्ञाता नहीं बल्कि ज्ञान की विषय वस्तु मात्र है और ज्ञान का अधिष्ठाता पुरुष समाज है । इस कारण नारीवादी सिद्धांत स्त्री केंद्रित पाठ की चर्चा करता है जिसका एक रूप महादेवी वर्मा के काव्य में देखा जा सकता है । वह कहती हैं,”विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना। परिचय इतना इतिहास यही ,उमड़ी कल थी मिट आज चली। मैं नीर भरी दु:ख की बदली।”6 इस विस्तृत समाज रूपी नभ पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। स्त्री यहां उपेक्षिता, अधीनस्थ एवं प्रताड़ित है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं ।

“नारीवाद का ज्यों – ज्यों विकास होता गया,इसकी शाखाएं विभिन्न दिशाओं में फैलती गई । नारीवादी चिंतकों ने पारंपरिक दर्शन की स्त्री विरोधी प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला, उन्होंने बताया कि पारंपरिक दर्शन ने न केवल स्त्री के बौद्धिक प्रयास का अवमूल्यन किया, साथ ही उसके नीचे मूल्य बोध को भी तुच्छ किया । चिंतन के क्षेत्र में स्त्री अपना स्थान बना सकती थी परंतु पुरुष केंद्रित सीमित सोच के कारण नहीं बना पाई ।”7 अतः स्पष्ट है कि समकालीन लेखकों से पहले भी नारी विमर्श को साहित्य में स्थान मिला लेकिन दुर्भाग्य की विडंबना यह है कि नारी आज भी जिस स्थान पर सुसज्जित होनी चाहिए वहां पहुंचने के लिए अभी न जाने कितना समय लगेगा ।

नारी की वास्तविक स्थिति को प्रकट करते हुए  तसलीमा नसरीन का कहना है, “स्त्री को डरना और लज्जालु होना पुरुष प्रधान समाज ने सिखाया है क्योंकि भयभीत और चालू रहने पर पुरुषों को उस पर अधिकार जताने में सुविधा होती है ।”8 अत: नारी को अत्यधिक शोषित करने के तौर-तरीकों में भी समय के साथ बदलाव शुरू हुआ जो उसकी आत्मनिर्भरता और संपन्नता के बावजूद भी उस पर हो रहा है जिससे छूटने के लिए वह निरंतर प्रयासरत है ।

 समकालीन हिंदी साहित्य में नारी विमर्श को लेकर लिखने वाली महिला लेखिकाओं में राजी सेठ का नाम भी प्रसिद्ध है । उन्होंने अपने ‘तत्सम’ उपन्यास में नारी विमर्श को अत्यंत आधुनिकता और परंपरागत रूढ़ियों का विरोध करते हुए हिंदू धर्म की तमाम परंपराओं और कुप्रथाओं को तोड़ते हुए विधवा पुनर्विवाह  पर जोर दिया है । वसुधा,उपन्यास की प्रमुख पात्रा है और वह अपनी रूढ़िवादी सोच को लेकर चलने वाली अम्मा से पूरी तरह सहमत होती हुई कहती है कि भाभी अम्मा ठीक कहती है विधवा को पुनर्विवाह शोभा नहीं देता किंतु उसकी भाभी उसका पुनर्विवाह करवाना चाहती है वह अम्मा की इस रूढ़िवादी सोच का विरोध करती हुई कहती है, “क्या ठीक कहती है अम्मा उनके जमाने लद गए जब चोरला चूल्हा झोंकते कट जाती थी सारी जिंदगी । आज कल की तरह मर्दों की दुनिया में रहना पड़ता तो पता लगता कि भेड़ियों के बीच रहना कैसा होता है । हर वक्त नोचने को तैयार बैठे रहते हैं |कहाँ तक अपने को बचाते फिरो |”9 अत: स्पष्ट है कि वर्तमान समय में भी नारी को इस दुरवस्था में पहूंचानें के लिए नारी ही जिम्मेदार है क्योंकि वह समय के साथ चलने और उससे मिलने वाली चुनोतियों से निपटने से पहले ही हार मान लेती है |

 उपन्यास,कहानियों के साथ-साथ हिंदी कविताओं में भी नारी विमर्श का स्वर दिखाई देता है । कल्पना सिंह लड़कियों को मनुष्य न माने जाने से चिंतित है । औरत की जिजीविषा की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनके इन शब्दों में दिखाई देती है –

“अभिशाप होती हैं ये लड़कियां

वरदान देती हैं यह लड़कियां

 लेकिन कोई भी तो नहीं कहता

 मनुष्य होती है यह लड़कियां”10

इसी प्रकार रेखा व्यास की ‘तनया’ कविता में लड़की होने की वेदना है जो आज के युग की त्रासदी है । आज जन्म लेते ही लड़की अपराध- बोध से ग्रस्त होकर मां से प्रश्न करती है। यह स्थिति औरत की अस्मिता की लड़ाई को और पैना करती है –

“मां

शायद में

लड़के की चाह में पैदा हुई

अनचाही उम्मीद हूं”11

अनुभूति चतुर्वेदी तीसरी बेटी के जन्म पर ‘तीसरी कोंपल कथा’ में समाज को कटघरे में खड़ा कर देती हैं तो दूसरी ओर मंजू गुप्ता बेटी के जन्म पर परिवार द्वारा शोक मनाए जाने और बड़ा होने पर उसे जलाए जाने से दु:खी होकर वह बंध्यत्व का ही वर मांग बैठती हैं – “हमारी कोख सुखा दो

मातृत्व से वंचित कर दो

 पीड़ा से मुक्ति दिला दो

देना हो तो वर कोई तो

हमें बंध्यत्व दो”12

 इस तरह की अभिलाषा पुराने मानदंडों को सिरे से नकारती है। जहां केवल पुत्र जन्म पर ही बधाइयां बनाई जाती हैं और पुत्री के जन्म को शोक के रूप में मनाया जाता है । इसलिए उन्हें ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ का वरदान नहीं चाहिए, चाहिए तो केवल उस पीड़ा से मुक्ति जिसे वह झेल रही हैं ।निष्कर्षत: पश्चिम में चलने वाली नारी मुक्ति विचारों की पुरजोर हवाओं ने तथा स्वदेशी सुधारवादी आंदोलनों ने सदियों से पुरुष वर्चस्व तले दबी भारतीय नारी को उसके ‘स्व’ और ‘स्वत्व’ से परिचित कराते हुए उसे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास के साथ जीने की नई आशा और नवचेतना से संपर्क करा दिया । उसे अपने अधिकारों के पक्ष में लड़ने की हिम्मत और ताकत दी । फलत: आजाद भारत में उसे घर की दहलीज लांघकर खुले आसमान तले उड़ने की छूट मिल गई । बीसवीं सदी के अंत तक उसे अधिकारों के रूप में अनेकानेक पंख भी निकल गए । अब प्रश्न यह उठता है कि कितनी नारियां है जो इन पंखों के बल पर उन्मुक्त उड़ान भरने में सफल रहीं ? निम्न तपके की स्त्रियां जहां अज्ञान और धनाभाव के कारण अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पाती वह तथाकथित संभ्रांत घरों की स्त्रियां बड़े-बड़े तमगे हासिल करने के बाद भी लोक-लाज की अनदेखी जंजीरों में जकड़ी होने के कारण घर की चारदीवारी के भीतर ही लड़ना- झगड़ना, चीखना- चिल्लाना, रोना-धोना, मरना- मारना पसंद करती हैं और बाहर निकलते ही एक मधुर मुस्कान ओढ़ लेती हैं। आखिर क्यों ? क्योंकि वह हिंदुस्तान के कभी न बदलने वाले इस सच से भलीभांति अवगत हैं कि सहना ही नारी की नीयति है। स्नेहमयी चौधरी द्वारा रचित ‘जलती हुई औरत का वक्तव्य’ में नारी की स्थिति का दिल दहला देने वाला सच अंकित है। “हिंदुस्तान में जो औरतें

 बर्फ नहीं बन पाती

 वे जलाई जाती हैं

या फिर स्वयं ही जल जाती हैं।”13

अतः कौन है नारी की इस दर्द भरी नियति का उत्तरदायी। क्या पुरुष ? नहीं, इसका दोषी पुरुष नहीं है क्योंकि स्त्री और पुरुष तो एक- दूसरे के पूरक हैं। दोषी है पितृसत्तात्मक भारतीय समाज व्यवस्था। पितृसत्ता अर्थात एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें बेटे को महत्व, पुरुषों का संसाधनों, ज्ञान और अर्थ पर उत्तराधिकार, भोजन के बंटवारे में लड़कियों के साथ भेदभाव, औरतों पर घरेलू कार्यों का बोझ, लड़कियों के लिए पढ़ाई के अवसरों का अभाव, आजादी और खाने-पीने की छूट का अभाव, प्रताड़ना, नियंत्रण, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, स्त्री शरीर व यौनिकता पर पुरुष  नियंत्रण व प्रजनन अधिकारों का अभाव होता है । अतः वर्तमान समय में इन तमाम बंधनों को जड़ से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है जिसके लिए नारी शक्ति को आगे आना पड़ेगा।

 संदर्भ सूची : –

  1. सुधाकर पांडे (संपा.) हिंदी साहित्य चिंतन, पृ. 598
  2. डॉ विनय (संपा.) समकालीन हिंदी कविता संवाद, पृ. 140
  3. प्रभा चौधरी,संस्कृत नाट्य में नायिका, पृ.1
  4. कुसुम अंसल – विशेषांक मूलचंद्र सोनकर के लेख से (संपा.) एफ. फिरोज अहमद, पृ. 129
  5. चित्रा मुद्गल,भूमिका : समकालीन महिला लेखन, पृ.7
  6. महादेवी वर्मा, यामा, पृ.95
  7. प्रभा खेतान – स्त्री विमर्श अपनी जगह, पृ. 187
  8. तसलीमा नसरीन,औरत : उत्तर कथा,पृ. 153
  9. राजी सेठ, उपन्यास ‘तत्सम’, पृ. 75
  10. रमणिका गुप्ता,स्त्री विमर्श,पृ. 86
  11. रमणिका गुप्ता,स्त्री विमर्श – कलम और कुदाल के बहाने,पृ. 89
  12. डॉ श्रद्धा सिंह, आधी आबादी : संदर्भ एवं प्रसंग,पृ.191
  13. वही, पृ. 66

डॉ . संदीप कुमार (सहायक आचार्य)

हिंदी विभाग ,

हि. प्र. विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केंद्र, मोहली, धर्मशाला

जिला काँगड़ा , हि. प्र., 176218