May 23, 2023

58. वर्तमान भारत में किन्नर समाज: किन्नर विमर्श के विशेष सन्दर्भ में – सत्य प्रकाश नाग

By Gina Journal

Page No.:410-417

वर्तमान भारत में किन्नर समाज: किन्नर विमर्श के विशेष सन्दर्भ में – सत्य प्रकाश नाग

जनगणना 2011 के अनुसार भारत में किन्नरों की कुल आबादी 4.88 लाख रही। देश में किन्नरों की इतनी बड़ी आबादी होने के बाद भी ये समाज की मुख्य धारा से कटे रहे। इसका प्रमुख कारण भारतीय समाज का किन्नरों के प्रति धृणित दृष्टिकोण रहा है। किन्नरों को लगातार समाज में उपेक्षित किया गया है। समाज में उनके प्रति तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप अथवा बुरी धारणायें फैलाई गयी, जिससे किन्नर समाज धीरे-धीेर अपनी मुख्य धारा से कटता चला गया। किन्नरों के प्रति भारतीय समाज की सोच आज तक परम्परागत और रूढिगत रही। जिसके कारण किन्नर समाज आज भी अपने आस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षशील दिखाई देता है। ‘किन्नर समाज’ की संरचना भी सभ्य समाज के दो मुख्य घटकों पर निर्भर करता है। स्त्री और पुरूष से इस समाज का संचालन होता है, और इन्ही घटकों से उत्पन्न एक इतर घटक जिसेे ‘हिजड़ा या किन्नर’ कहा जाता है। ये सामान्य रूप से न नर होते हैं न नारी, इन्हें नर और नारी का मिश्रित आस्तित्व कह सकते हैं। जिसकी इस समाज को कोई आवश्यकता नहीं है।

‘किन्नर’, समाज का एक जीवित प्राणी होता है, जिससे उसका परिवार स्वयं उससे पिण्ड छुड़ाना चाहता है, अधिकाँश माँ-बाप तो उसे मृत्यु के मुँह में झोंकने से भी नहीं पीछे हटते हैं। किसी कारणवश जब ऐसा नहीं कर पाते हैं तो व्यक्ति विशेष को सौंपकर अपना पींछा छुड़ाते हैं। इस भारतीय लिंगधारी समाज में लिंगविहीन जन्म लेने के कारण वह शिशु मातृव विहीन जीवन जीने को विवश हो जाता है। जबकि यह सत्य है कि इन सब घटनाओं में न उसका कोई अपराध होता है न कोई गलती। इस भारतीय समाज में उसको किन्नर, छक्का, हिजड़ा, खोजा, नम्बर नौ, उभयलिंगी, किंपुरूष, खुसरा, जनाना आदि न जाने कितने अन्य नामों से भी जाना जाता है। जब इन्ही प्राणियों के द्वारा स्त्री पुरूष समाज से भिन्न एक अलग समाज का निर्माण किया जाता है, जो ‘किन्नर समाज’ के नाम से जाना जाता है।

भारतीय समाज ‘अनेकता में एकता’ का प्रतीक माना जाता है, किन्तु विषमताओं से रहित नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि धर्मनिरपेक्ष होने के बाद भी यहाँ साम्प्रदायिक हिंसा की आग में देश झुलसता रहता है। यहाँ आज भी कुछ क्षेत्रों में उपेक्षित लोगों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। स्त्रियों अस्तित्व विहीन जीवन जीने को विवश हैं। इन्हें आज भी भोग विलास की सामग्री तथा ‘पाँव की जूती’ ही समझा जाता है, परन्तु धीरे-धीेरे भारतीय समाज में परिवर्तन होने लगा प्राचीन धारणाएँ धीरे-2 बदलने लगी जिसके कारण स्त्रियाँ भी अब अपने आस्तित्व को पहचानने लगी। प्राचीन काल से भारतीय समाज में पूँजीवाद, ब्राम्हणवाद, जातिवाद सदा से सत्ता के केन्द्र में रहा इसलिए कुछ समुदायो के अलावा किसी को इंसान तक नहीं स्वीकार किया गया। इन्ही विडम्बनाओं के कारण एकल समाज की कल्पना अभी तक पूरी न हो सकी।

भारत में ‘किन्नरों’ को सन् 1871 ई0 से पहले अधिकार प्रदान किए गए थे, किन्तु अंग्रेजों द्वारा 1871 में इन्हें जारयम पेशा जनजाति या ‘क्रिमिनल ट्राइल्स’ की श्रेणी में डाल दिया। देश की स्वतन्त्रता के साथ-साथ ‘किन्नर’ भी उस श्रेणी में निकाल दिए गए। सन् 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें तृतीय लिंग के रूप में मान्यता प्रदान की। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि तृतीय लिंग को अब ओ0बी0सी0 का दर्जा दिया जाता है और शिक्षा, नौकरी में ओ0बी0सी0 के रूप में आरक्षण दिया जाएगा।

किन्नर समाज की शैक्षिक स्थिति पर प्रकाश डाला जाए तो इनकी कुल साक्षरता दर 45ः है जो देश की कुछ साक्षता दर 74ः की तुलना में बहुत कम है। इसका मुख्य कारण है कि ‘किन्नरों’ में शिक्षा अभी उतनी लोकप्रिय नहीं है, जितनी मुख्य समाज में है। किन्नरों को परिवार समाज में हीनता भावना से देखा जाता है इसीलिए स्त्री-पुरूष समाज से अलग रहने का प्रयास करते है। आज आवश्यकता यह है कि इन्हे भी समाज की मुख्य धारा में सम्मलित किया जाए।

यह अत्यन्त ही खेद का विषय है कि हमारी शिक्षा और शैक्षिक नीतियों में किन्नरों के लिए केाई प्रावधान नहीं है। क्या ऐसे बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार नहीं है जो शिक्षा से वंचित हैं तथा समाज इन्हें नाच-गाना तथा गली-गली भटकने पर मजबूर कर देता है।

सर्वप्रथम भारत में किन्नरों के लिए बरेली की गैर-सरकारी संस्था ‘शेख फरजंद अली एजुकेशनल एण्ड सोशल फाउण्डेंशन आफ इण्डिया‘ के द्वारा ‘आस’ नाम से एक स्कूल सहपुनर्वास केन्द्र खोला गया है। इसके अतिरिक्त एक बोर्डिंग स्कूल (सहज अण्टरनेटिव लर्निंग सेंटर) दिसम्बर 2016 में केरल राज्य में स्थापित किया गया। श्री लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने भरत नाट्यम् में स्नातकोत्तर किया। वे शास्त्रीय नर्तकियों में से एक हैं। पृथिका यशिनी (तमिलनाडु) देश की पहली महिला सब इंस्पेक्टर तथा जोइथा मण्डल (कोलकाता) पहली किन्नर जज, मानोबी बाधोपाध्याय विश्व की पहली किन्नर प्रिंसिपल बनी।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं परन्तु क्या किन्नरों को उनके अधिकार प्रदान किय गए? यह विचारणीय है। किन्नर समाज राजनीति के क्षेत्र में भी मुख्य समाज से पीछे रहा इसका कारण मुख्य समाज एवं सरकार की किन्नरों के प्रति उदासीनता है। इस क्षेत्र में भी इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया। समय के साथ साथ चुनाव आयोग ने जब यह महसूस किया कि समाज का एक खास तबका आज भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उससे गुहार लगा रहा है, तब जाकर वर्ष 1994 में किन्नरों को मतदान का अधिकार प्रदान किया गया। इसी का यह परिणाम रहा कि वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश के सुहागपुर विधानसभा क्षेत्र से देश की पहली किन्नर विधायक शबनम मौसी ने इस फैसले पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहा ‘‘ऐसे समाज को पहचान देकर जो सदियों से तिरस्कार और भेदभाव का शिकार रहा चुनाव आयोग ने प्रशंसनीय कार्य किया है।’’

इसी के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में भी एक क्रांति आयी और समाज के शोषित और उपेक्षित तबके ने भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया। मुध किन्नर छत्तीसगढ़ के रामगढ़ क्षेत्र से मेयर चुनी गई तो आशा देवी गोरखपुर की मेयर बनी। 2000ई0 में कमला जान को कटनी (मध्य प्रदेश) के मेयर के रूप में नियुक्त किया गया।

सिनेमा जगत भी किन्नर समाज की समस्याओं और उसके संघर्षो से अनाभिज्ञ न रहा गया, उसने भी अपनी फिल्मों के माध्यम से जागरूकता फैलाने का प्रयत्न किया कि ‘किन्नर’ भी समाज का अभिन्न अंग है। उसे भी इस समाज की भौतिक वस्तुओं की उतनी ही आवश्यकता है जितनी अन्य व्यक्तियों को। ‘किन्नर’ आज भी उपेक्षित, धृणित और अपमानित जीवन अपनी गंदी बस्ती में जीने के लिए विवश हैं। ये भोजन करे अथवा भूखे रहें जिंदा रहे अथवा मर जाएॅ इनको कोई परवाह करने वाला नहीं होता है। परन्तु सिनेमा के अथक प्रयासों से चलचित्रों के माध्यम से इनकी समस्याओं को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है।

कुँवारा बाप (1974) के एक गाने में वास्तविक किन्नर को अभिनय व नृत्य करता दिखाया गया है।

फिल्म ‘अमर अकबर एन्थेनी’ के गीत ‘तैयब अली प्यार का दुश्मन हाय-हाय’ में किन्नरों को दर्शाया गया है। इसी प्रकार ‘सड़क’ (1991), तमन्ना, दरमियाँ (1997), संघर्ष (1999), गुलाब आइना, दोस्ताना, ट्रैफिक सिग्नल, वेलकम टू सज्जनपुर, लक्ष्मी बॉम्ब इत्यादि फिम्में के माध्यम से आज सिनेमा ‘किन्नर’ जैसे उपेक्ष्ति पात्रों को मुख्यधरा में समान दर्जा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

समाज की मुख्य धारा के द्वारा जिन किन्नरें को घृणित, अपमानित, अस्पृश्य समझा गय उसी समाज के कल्याण और विकस के लिए किन्नर आज जागरूक हुए हैं। अपने सामाजिक अधिकारों से सम्बन्धित कानूनी न्याय प्राप्त करने के लिए आवाज उठ रहे हैं। किन्नर समुदाय आज संगठित होकर स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से अपना विकास स्वयं कर रहा है। इन सब के बावजूद भी इनके संस्थानों को सरकार व समाज से अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पाता है।

‘‘किन्नर माँ ट्रस्ट’’ अध्यक्ष सलमा खान के अनुसार ‘‘हमारे समाज को सरकार और समाज दोनों से उपेक्षा ही मिलती आयी है। किन्नरों के लिए शेल्टर होम, चिकित्सा और कुटीर उद्योग की तुरंत जरूरत है और यह हम सब भीख नहीं माँग रहे, यह हमारा हक है।’’ सन् 1999 में ‘दाई वेलफेयर सोसाइटी’ की स्थापना की गयी। 1994 में परामर्श, वकालत और स्वास्थ्य की सेवाओं हेतु ‘हम सफर ट्रस्ट’ नामक संस्था गठित की गई। किन्नरों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय हेतु तमिलनाडु में सहोदरी फाउण्डेशन की स्थापना की गई। सन् 1994 ई0 में एच0आई0वी0 एड्स और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ‘नाज फाउण्डेशन’ की स्थापना अंजली गौतम के द्वारा की गई।

किन्नर समाज की रक्षा के लिए ये संस्थाएँ लगातार कार्य कर रही है। भारत में एकल समाज की स्थापना में इन संस्थाओं का योगदान अति आवश्यक है। इन संस्थाओं के महत्व को देखा जाए तो इनके माध्यम से किन्नर समाज के जीवन स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। कुछ किन्नरों ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपने मेहनत और लगन से समाज में अपनी अलग पहचान बनायी और अपने लक्ष्य को पाने में सफल रहे।

वर्षो से चली आ रही अपनी घिसी पिटी परंपराओं के अनुरूप समाज स्वयं को व्यवस्थित करने में जुटा है। कई बार ऐसा होता है कि हम विचारेां से आधुनिक हो ही नहीं पाते हैं क्येांकि विरासत में मिली रूढ़ियाँ और मूल्यों को हम तोड़ नहीं पाते है। सामाजिक अस्वीकृति किन्नरों की बहुत बड़ी समस्या है।

आज भी किन्नरों के प्रति समाज की मानसिकता अधिकतर नकारात्मक ही है। शुभ मुहूर्त में इनका आना भी इनका अशुभ लगता है जबकि यह सत्य है कि यह उनके जीविकोपार्जन का एक हिस्स है। मुख्य धारा का समाज तरह-तरह के कलंकों और आरोपों द्वारा इन्हे इनके ही अधिकारों से वंचित कर देना चाहता है। आज समाज इस वर्ग को हॉशिए और व्यंग्य की दृष्टि से देखता है। और इसका उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए करता है। उसे रंचमात्र भी यह आभास नहीं रहता कि इस प्रकार की सोंच से किन्नर समाज को कितनी ठेस पहुँचेगी।

य़द्यपि धीरे-घीरे साहित्य तथा इस विषय से सम्बन्धित संगोष्ठियों एवं विविध स्तरीय प्रयासों द्वारा अब इस वर्ग पर भी ध्यान दिया जा रहा है तथा यह निरन्तर प्रयास किया जा रहा है कि अब यह वर्ग उपहास का नहीं बल्कि संवेदना का विषय बने तथा वे संविधान द्वारा प्रदान किए गए सभी मूल अधिकारों का उपयोग समान रूप से कर सकें। यह आवश्यक है कि समाज एवं उनके बीच सहज-स्वस्थ संवाद सेतु का निर्माण हो। किन्नर समाज और मुख्य धारा के बीच का रिक्त भरा जा सके और मानवता को गौरवान्वित किया जा सके। पश्चिममी देशों में उभयलिंगी समुदायों को सभी नागरिकों के समान ही अधिकार प्रदान किए गए हैं। उन्हें अपने परिवार या समाज से बहिष्कृत नहीं किया जाता बल्कि सभी के साथ अपना जीवन निर्वाह करते है, क्योंकि वहाँ की सरकार या समाज उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक नहीं मानती, किन्तु भारतीय समाज में लिंग विहीन लोगों को बाहिष्कृत किया जाता है। उनके साथ एक साधारण मनुष्य के समान भी व्यवहार नहीं किया जाता बल्कि उन्हें क्रूरता भर्मान्तमक पीड़ा और दर्दनाक स्थितियों का सामना भी करना पड़ता है। इस वर्ग के प्रति सरकार का क्या रवैयाा है, क्या सरकार इस वर्ग को सुविधाएँ प्रदान करती है, और यदि करती है तो किस स्तर पर? इस वर्ग की उपेक्षा के बड़े कारण सहित्य से भी अछूते नही रहे, ‘यमदीप’ उपन्यास के एक पात्र ‘महताब गुरू’ के कथन द्वारा इस वर्ग की पीड़ा एवं समाज, सरकार का वर्ग के प्रति उपेक्षा भाव की वास्तविकता को उजागर करता है, ‘‘कोई कुछ नहीं करता है। समाज भी नहीं, सरकार तो अपना वोट माँगने के लिए उन्ही के सामने चारा फेंकेगी न, जो लोग रोज मुर्गियों की तरह अण्डे देकर आबादी बढ़ाएगें। हम कौन से अण्डे देने वाले है। अल्लाह ने तो हमें वह नेमत दी ही नहीं।’’ थर्ड जेण्डर से जुडतेे व्यक्तियों ने शिक्षा, राजनीति, सिनेमा आदि के क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान निर्मित की हैं। अब किन्नर समुदाय को लेकर सरकार और समाज की मानसिकता में कुछ परिवर्तन अवश्य दिखाई देता हैं। सी0पी0ई0टी0 विश्वविद्यालय ने सन् 2014 में किन्नर समुदाय से जुड़े व्यक्तियों को प्रवेश देकर ऐतिहासिक पहल की शुरूआत की।

शोभा जैन के अनुसार उज्जैन में आयोजित वर्ष 2016 का महाकुम्भ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ‘थर्ड जेण्डर’ के प्रति तुलनात्मक दृष्टि से समाज में बड़ा परिवर्तन आया है। ‘‘वर्ष 2016 में आयोजित महाकुम्भ में पहली बार ‘किन्नर समुदाय’ का एक अलग स्थान निर्धारित किया गया। पहले रोजगार के आवेदन में सिर्फ दो विकल्प होते थे-स्त्री अथवा पुरूष, किन्तु अब-स्त्री, पुरूष अन्य। रेलवे के रजिस्ट्रेशन फार्म पर भी तृतीय लिंग का विकल्प होगा। लैंगिग न्याय की दृष्टि से यह बहुत बड़ी पहल कहीं जा सकती है। ‘‘इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनीवर्सिटी’ ने यह घोषणा की कि उभ्यालिंगी समुदाय से जुड़ा व्यक्ति कहीं भी मुक्त शिक्षा ले सकता है।

इसप्रकार के उदाहरणों को देखकर कहा जा सकता है कि सरकार, समाज, व्यक्ति  की मानसिकता में कुछ परिवर्तन तो अवश्य हुआ है। उभयलिंगी समाज का अटूट विश्वास और समाज की बदली हुयी मानसिकता दोनो के योगदान से इस समुदाय को भी भारतीय गरिमा से युक्त किया जा सकता है। मीडिया, सोशलमीडिया, साहित्य प्रकाशन, पत्र-पत्रिकाएँ आदि के द्वारा इस वर्ग को भी व्यापक स्तर पर पहचान दी जा सकती है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अब किन्नर समुदाय के लोगों के जीवन और उससे जुड़ी समस्याओं पर विमर्श का प्रारंभ हो चुका है। भविष्य में जब भी इस समुदाय के द्वारा मानवीय अधिकारों की लड़ाई व्यापक स्तर पर लड़ी जाएगी तो समाज भी उसी के अनुसार उन्हें स्वीकार करेगा। अनेकता में एकता की बात भारत में अनन्त काल से चली आ रही है, जिस भारत ने विदेशी लुटेरों तक को आत्मसात कर लिया, क्या उस भारत वर्ष में उभयलिंगी समुदाय के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का परिवेश निर्मित नहीं किया जा सकता?

समाज को शुभकामनाएँ देने वाला ही अशुभ कैसे हो सकता है? डॉ सुनील कुमार द्विवेदी के अनुसार ‘‘आवश्यकता इस बात की है कि हम सामाजिक धरातल पर हिजड़ा समाज के साथ-साथ पुरूष एवं स्त्री समाज के बीच यह जागृति फैलाएॅ कि आलोच्य समाज भी मानवीय समाज का हिस्सा है, जिसे किसी भी अन्य मानव प्रजाति से सम्बन्धित समुदाय के लोगों की तरह सम्मान से जीने का अधिकार है। यही वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम उन्हें स्वास्थ्यगत, विधिगत, भवनगत, मनोगत इत्यादि स्तरों पर मात्र सुदृढ़ ही नहीं बनाएगें, बल्कि अपने समाज को भी सही अर्थो में मानवीय सद्मूल्यों से सम्पृक्त कर कही अधिक बेहतरीन एवं बहुउपयोगी बनाएंगे।’’

‘किन्नर समाज’ को भी निजता, स्वतन्त्रता, सम्मान, समानता, मानवीय अधिकार प्राप्त होने चाहिए। अभी किन्नर समाज के संदर्भ में रचना और विमर्श की दृष्टि से बहुत कुछ आना शेष है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-

1-   हिंदी उपन्यासों के आइने में थर्ड जेण्डर, डॉ0 विजेन्द्र प्रताप सिंह, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2017

2-   क्वीर विमर्श, के0वनजा, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2021

3-   गुलाममंडी, निर्मला भुराड़िया, सामाजिक पेपर वैक्स 2019
4-   यमदीप, नीरजा माधव, सामाजिक प्रकाशन संस्करण 2017
5-   किन्नर सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता, प्रियंका नारायण वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2021
6-   कथा और किन्नर, सं0 डॉ0 विजेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ0 रवि कुमार गोंड, अमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2018
7-   थर्ड जेण्डर विमर्श, सं0 शरद सिंह सामायिक पेपर बैक्स प्रथम संस्करण 2020
8-   मोहम्मद, आर0 (2015) ट्रान्सजेण्डर एण्ड ह्यूमन राइट आफ डेवलपमेंट इन इण्डिया, रिपोर्ट आन इण्टरनेशनल कांग्रेस ह्यूमन राइट एण्ड ड्यूटीज
9-   इण्डिया टुडे (2018) 8 इण्डियन ट्रान्सजेन्डर प्यूपल हू ह्वेयर द फास्ट इन देयर फील्ड इण्डिया टुडे
10- हिंदी साहित्य में किन्नर जीवन, सं0 डॉ दिलीप मेहरा वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2019
11- किन्नर समाज, संदर्भ तीसरी ताली, पार्वती कुमारी वाणी प्रकाशन , प्रथम संस्करण 2019
12- किन्नर गाथा, शीला डागा, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2020

सत्य प्रकाश नाग
शोध छात्र हिन्दी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ