12. समकालिन साहित्य में स्त्री विमर्श – राजलक्ष्मी जायसवाल
Page No.: 83-88
समकालिन साहित्य में स्त्री विमर्श
शोध लेखिका – राजलक्ष्मी जायसवाल
सार संक्षेपन- सन् 1960 के बाद आधुनिकतावाद के परिणाम स्वरूप समाज में अनेक अस्मिताओं ने अपने संघर्ष को अभिव्यक्ति दी, अथार्त दलित, आदिवासी, स्त्री अस्मिताएँ अब केन्द्र रूप से अपने अस्तित्व की रक्षा करने के साथ साहित्य रचने लगी।
अब तक स्त्रियां पुरूष को स्वीकार करते हुए उनके द्वारा बनाये गए नियमों पर चलती थी तथा पुरूषों के वर्चस्व का शिकार थी परंतु इस दौर की महिलाएं अपने – अपने अस्मिता की खोंज में निकल रही है तथा साहित्य के क्षेत्र में भी सबके सशक्त पहचान स्त्री विमर्श का है। समकालीन साहित्य की कुछ स्त्री पात्र शोषण के प्रति प्रतिशोध, विपरीत परिस्थितियों के प्रति सजगता, दमन तथा अत्याचार के प्रति प्रतिशोध, विपरीत परिस्थितियों के प्रति जागरूकता के साथ आगे बढ़ रही है तो वहीं कुछ स्त्रियां अब भी प्रतिरोध हीनता के पथ पर देखी जाती है।
मुल शब्द- अस्मिता, आधुनिकतावाद, प्रतिरोधहीनता, अस्तित्व, प्रतिशोध, सजगता, सशक्त, वर्चस्व।
समकालीन स्त्री विमर्श रूपी स्वर जिस पहचान की ओर मुखरित है, उसकी अभिव्यक्ति न भी दी जाए तो भी उनकी वेदनाएं और छटपटाती स्त्री जीवन की विडंबना अतीत में विद्यमान है।
1960 के बाद विश्व में सामाजिक स्तर पर अस्मिताओं के संघर्ष के रूप को देखने मिलता है अभी तक जो दलित, आदिवासी, स्त्री अस्मिताएँ थी वह केंद्रीयकृत होने लगी, लंबे समय तक दबाये गए आवाज अब अभिव्यक्ति मांग रहे हैं।
स्त्रियों की आंतरिक पीड़ा को अभिव्यक्ति देते हुए राजरानी देवी (सन् 1869 ई0) की दो काव्य कृतियाँ ‘प्रमदा प्रमोद’ तथा ‘स्त्री संयुक्ता’ प्रकाशित हुई जिसमें वे स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहती हैं-
“देवियों” क्या पतन अपना देखकर,
नेत्र से आंसू निकलते है नहीं।
भाग्यहीन क्या स्वयं को लेखकर
पाप से कलुषित हृदय जलते नहीं।”1
बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के उपरांत ‘कृशा गौतमी’ की चेरी की गाथा स्त्री शरीर एवं तत्कालीन स्त्री जीवन पर वेदनात्मक टिप्पणी करती है-
“स्त्री होना दुख है।1
ऐसा मनुष्यों के चित को संयमी बनाने वाले उन सारथी स्वरूप
(भगवान बुद्ध) ने कहा है
(विद्वेषी) सपत्नियों के साथ
एक घर में रहना दुख है”2
भक्तिकाल की मीरा के संदर्भ में सुमन राजे लिखती है कि “मध्ययुगीन साहित्य में मीरा का जीवन और साहित्य नाटी – विद्रोह का रचनात्मक आगाज है।”3
आधुनिक युग के प्रारंभकर्ता भारतेंदु जी की प्रेयसी मल्लिका जी का उपन्यास चंदप्रभा बेमेल विवाह पर आधारित सामाजिक उपन्यास जिके आधुनिक युग के स्त्री विमर्श का प्रथम पाठ कहा जा सकता है”4
तत्कालीन समय में रूप कुमारी चंदेल का काव्यमंजरी, गिरिराज कुँवारी का ‘ब्रजराज विलास’ अनामिका, उषा देवी मिजा, राजेन्द्र बाला घोष, शिवरानी देवी आदि का लेखन प्राप्त होता है जिसमें नारी विमर्श का विवरण बेबाकी से प्रस्तुत किया गया है। तारेन देवी शुक्ल स्त्री स्वाधीनता के लिए पद प्रथा का विरोध करते हुए कहती है-
“कहो बंधु अब क्या कहते हो,
कब तक मुक्त करोगे?
इस धुधर की कड़ियों से
हम दुर्बल दीन मलीन हुई
सुख शांति, स्वास्थ्य बलहीन हुई
मिलती अंतिम घड़ियों से।”5
बीसवीं सदी मंें महादेवी वर्मा (1907), चंद किरण सैनरेक्सा (1920) शशिप्रभा शास्त्री 1923, दिप्ति खंडेलवाल 1924, कृष्णा सोबती (1925) उषा प्रियवंदा (1930), मनुभंडारी (1931), मंजुल भगत (1936), मृदलागर्ग (1938) प्रभाखेतान (1942) आदि स्त्रियों ने अपने रचनाओं के माध्यम के स्त्री चेतना का स्वर ऊंचा किया ओर स्त्री संबंधी विचार, संघर्ष, विडम्बना, विसंगति, घूटन, टूटन, आकांक्षाएँ का स्तंभ प्रस्तुत कर समाज में उनकी अनुभूतियों का अनुभव कराया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय स्त्रीयों में तेजी से बदलाव आया, स्त्रियां शिक्षा, रोजगार और अपनी अस्मिता की पहचान की तरफ तेजी से जागरूक होने लगी तथा हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श पर साहानुभूति की जगह स्वानुभूति सहित रचना ज्यादा प्राणवान सिद्ध होगी। और पुरूषों को कल्पना का सहारा न लेना पड़े। जिसमें मुख्य रूप से महादेवी वर्मा कृत ‘श्रृखंला की कड़ियाँ’ इसी अस्मिता की दृष्टि से नारी-जागरण का साहित्यिक घोषणा पत्र है।
महादेवी वर्मा लिखती है- “भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण प्रवेश से जाग उठे उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं, उसके अधिकारों के संबंध में यह बात सत्य है कि ये भिक्षावृŸिा से न मिले और ने मिलेंगे क्योंकि स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तु से भिन्न है”।6
दरअसल तत्कालीन समय में स्त्रियों को सुशील, संस्कारी, शालीन और शांत रहने की शिक्षा दी जाती थी वहीं स्त्री लेखिकाओं की गुंज साहित्य व समाज में स्त्रियांे को अपनी अस्मिता का पहचान कराने का उत्कृष्ट अपनी प्रयास था, तथा स्त्रियों के लिए स्वंय में बड़ा साहसी कदम था- जिसमें निम्न वर्ग की जिजीविषा, स्त्रियों की अवश्यकताओं के लिए संघर्ष, दहेज का विरोध, विधवा विवाह पुर्नविवाह, स्त्रियों के मानवीय मूल्यों तथा अधिकारों आदि स्त्री संबंधी विषयों को महत्व दिया गया।
स्त्री विमर्श की बात करे तो कृषणा सोबती का लेखन समकालिन साहित्य में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 60-70 के दशक में थी, इनका उपन्यास मित्रो मरजानी चर्चित एवं विवादास्प्रद उपन्यास रहा। जिसमें खुलकर यौन सुख की मांग की समस्या की बात की। हमारे समाज में स्त्री को देह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं समझा जाता है। इस संदर्भ में राजेन्द्र यादव लिखते है- “शायद यह हमारे सामाज का सबसे भयानक अंतर्विरोध है, जब तक पुरूष स्वयं उसे सिर्फ देह मानकर शोषण, उपयोग करता रहे तब तक वह सब कुछ सहज स्वाभाविक है, मगर जिस क्षण वह तय करती है कि उसकी देह का उपयोग स्वयं कैसे करे, उसी दिन आसमान टूट पड़ता है, भारतीय समाज में वह उसी दिन अपना मृत्यु लेख लिखना शुरू कर देती है”।7
समकालिन स्त्री साहित्य आधुनिक स्त्री के मन में उमड़ते घुमड़ते अंतरद्वंद को दर्शाती है कि किस प्रकार अपनी जिंदगी में अपनी ही स्वतंत्रता के लिए संघर्षशील रहती है। जिसमें समकालीन स्त्रियां अपनी अस्मिता का खोजती है।
आधुनिक स्त्री विचारों से प्रभावित मनुभंडारी का उपन्यास एक इंच मुस्कान 1981 में प्रकाशित होता है जिसमें रंजना और अमला के माध्यम से आधुनिक स्त्री-विचारों का प्रस्तुतीकरण किया गया है, इसमें नायिका रंजना विवाह को व्यक्तिगत फैसला मानती है, इसकी ‘अमला’ परित्यक्ता स्त्री है, जो विवाह संबंध में आस्था नहीं रखती है, वह दूसरे विवाह के लिए मना कर देती है, वह मानती है कि विवाह स्त्री के लिए जरूरी नहीं है, अपना जीवन जीने के लिए पुरूष का सहारा ढूँढना जीवन का आवश्यक अंग नहीं है।
निष्कर्ष – निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समकालिन साहित्य में स्त्री विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय है जिसमें आधुनिक युग के कथा साहित्य की स्त्रियां पुरूष को प्रतिद्वन्दी के रूप में मानने वाली, अपने स्वतंत्र करने वाली, व्यक्ति एवं अपनी अस्मिता को महत्व देने वाली स्त्री है।
एक नारी अपने जीवन में उहापोह की एक संपूर्ण आंतरिक झंझटो से गुजरती है और समाज को संस्कार समवेत अपनी हदों में बांधती, जोड़ती, टूटती, निखरती, बिखरती अतंतः एक निर्णय से लगने वाले बिंदु तक पहुँचती है। तथा अपने स्व और सवभिमान की रक्षा करती है।
स्त्री शिक्षा प्राप्त करके, स्वालंबी, आत्मनिर्भर, साहसी, होने के साथ ही साथ स्त्री प्रतिष्ठा की समानता पा सकती है, क्योंकि स्त्रियों के शोषण एवं उनके नैतिक पतन में उनकी कमजोर आर्थिक, सामाजिक, मानसिक विसंगतिपूर्ण स्थिति मुख्य रूप से अंतर्निहित है।
अतः समाकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श स्त्री की विभिन्न की स्त्री विसंगतियों, विडम्बनाओं, कुशलताओं एवं आकांक्षाओं का आईना प्रस्तुत करती है।
संदर्भ ग्रंथ सूचि:
1. हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास नई दिल्ली, 2014: नीरजा माधव पृ0 सं0-79
2. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास: सुमन राजे, पृष्ठ सं0-99
3. हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास: सुमन राजे, पृष्ठ सं0-148
4. हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास नई दिल्ली, 2014, नीरजा माधव पृ0 सं0-25
5. हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास नई दिल्ली, 2014, नीरजा माधव पृ0 सं0-55
6. महादेवी वर्मा – ‘श्रृखंला की कड़िया,’ लोक भारती प्रकाशन, 2015 पृ0-9
7. राजेन्द्र यादव- ‘आदमी की निगाह में औरत’ राजकमल प्रकाशन पृ0 – 43, नई दिल्ली
संपर्क: राजलक्ष्मी
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
रांची विश्वविद्यालय, रांची-834001