May 24, 2023

60. समकालीन साहित्य में आर्थिक विमर्श –  डॉ0 जगदीश चन्द्र जोशी

By Gina Journal

Page No.: 430-437

समकालीन साहित्य में आर्थिक विमर्श –  डॉ0 जगदीश चन्द्र जोशी

सारांश: समकालीन साहित्य में अभावों से जूझ रहे सर्वहारा वर्ग का कवियों ने सटीक चित्रण किया है। नागार्जुन, धूमिल, केदारनाथ सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, रामशेर बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार, मुक्तिबोध, कैलाश वाजपेई, उदय प्रकाश दिनकर आदि ने रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित वर्ग को ही अपनी कविता का विषय नहीं बनाया है बल्कि वेतन के लिए तरसते बिहार के विद्यालयों के शिक्षकों को भी कविता का केन्द्र बिन्दु बनाया। कवियों ने निरन्तर सामाजिक षड्यन्त्रों, अभावों, आर्थिक विषमताओं के विरुद्ध लड़ने तथा संघर्ष करने की चेतना पैदा की।
बीजशब्द: आर्थिक, चूल्हा, उल्लासहीनता, उल्लासमयता, दुःख, पीड़ा, गाड़ी, नक्सलबाड़ी, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी।
  साहित्य समाज का दर्पण है। समाज में आर्थिक विषमता के कारण मानव जीवन प्रभावित होता है। धनवान होने पर अनेक लोग उसके सगे-सम्बन्धी होते हैं। उससे किसी न किसी तरह का रिश्ता बनाने एवं बताने लगते हैं। यदि यही व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर हो जाय तो वही सगे-सम्बन्धी पहचानने से भी मना कर देते हैं। भोजन, कपड़े एवं आवास की अत्यधिक कमी, सामाजिक सुरक्षा का अभाव, निरक्षता, बेगारी, सरकार तथा प्रशासन का उदासीनतापूर्ण और कटुतापूर्ण व्यवहार समकालीन साहित्यकारों की लेखनी से अछूता नहीं रहा है।
  कवि नागार्जुन ने जनसाधारण का जो इस संसार में पीड़ित है, प्रताड़ित है, शोषित और आतंकित है, दुःख तथा दर्द से परेशान है उनके पक्ष में खड़े होने का निश्चय किया। पीड़ित समाज के प्रति स्वाभाविक वेदना और सहानुभूति का भाव नागार्जुन के मन में रहा है। नागार्जुन सहज अनुभूति और पीड़ा को कुशलता से अभिव्यक्त करते हैं। ‘कई दिनों तक’ कविता में कवि ने उल्लासहीनता तथा उल्लासमयता का अत्यन्त प्रभावशाली वातावरण प्रस्तुत किया है –
‘कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास।
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद,
धुआँ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद।
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद,1
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।।
  प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की कविता के मूल में करुणा है। अन्य जनवादी कवियों की भांति अर्थाभाव से जूझ रहे विपन्न, भूखे, नंगे जनसमुदाय को दूर से देखकर द्रवित नहीं होते बल्कि त्रिलोचन की करुणा निरंतर सतह के नीचे से प्रवाहित होने वाली करुण भावधारा है। अनेक विषमताओं तथा दुःख के बेरहम दर्द की मार को वाणी देने वाले, घुटनों के बल गिरने व चमड़े के छिलने पर पाँव को मलकर फिर से चलने को तैयार रहता है।
‘दुःख और गान’ कविता में कवि की आशावादिता मुखरित हो उठती है –
‘जब-जब दुःख की रात घिरी,
तब-तब मैं गाना
खुलकर गाता रहा, अँधेरे में स्वर मेरा,
और उदात्त हो गया, सीखा नहीं छिपाना।’2
कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में भी दुःख, अभाव, पीड़ा और प्रताड़ना का चित्रण जगह-जगह पर मिल जाता है। कवि के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह मजदूरों, किसानों एवं गरीब लोगों का दुखड़ा रोते रहे अपितु उन्हें सबके साथ दुःख को सहते हुए संघर्ष करना ही होगा –
‘रोना मजदूर एवं किसान के दुखड़े को
शीशे में हजार बार देखना मुखड़े को
काम से, पसीने से कोई पहचान नहीं
उतरेगी कैसे उन शब्दों में व्याकुलता
जिनका दुःख माना है; उनका दुःख जानो तो’।3
  कवि केदारनाथ अग्रवाल को शोषित के भविष्य पर एवं उसकी संगठनात्मक शक्ति पर भरोसा है। कवि का कहना है –
‘मैंने उसको जब-जब देखा-लोहा देखा
लोहा जैसा तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा।
मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा।4
  समकालीन साहित्य में धूमिल विशिष्ट हस्ताक्षर हैं। आदमी की पीड़ा, भूख, दरिद्रता, गरीबी के जन्मदाता शोषक वर्ग पर तीव्र कटाक्ष करने से धूमिल नहीं चूकते हैं। वे जमाखोरों की गहरी परतों को उघाड़ते हुए व्यंग्य करते हैं-
‘एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है.
जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ –
यह तीसरा आदमी कौन है ?
देश की संसद मौन है।’5
आर्थिक विषमता और शोषण का परिणाम नक्सलबाड़ी आन्दोलन है। धूमिल कहते हैं-
‘यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया‘ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम
नक्सलबाड़ी है।’6
  दुष्यन्त कुमार अपने समय के चर्चित कवि रहे हैं। निर्धनता के सत्य को उद्घाटित करते हुए दुष्यन्त कुमार कहते हैं –
‘या उनके फटे वस्त्र तुमको भरमा गए?
पाँवों की बिवाई से तुम धोखा खा गए?
जो उनको ऐसा गलत रास्ता सुझा गए?
क्यों नहीं बताई राह?’7
  मुक्तिबोध की कविता में प्रायः मानव जीवन से सम्बन्धित बिम्बों का प्राधान्य रहा है। कवि मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ नामक कविता में एक असहाय, कमजोर एवं ठिठुरे हुए व्यक्ति का बिम्ब दर्शनीय है –
‘सामने मेरे
सर्दी में बोरे को ओढ़कर
कोई एक अपने
हाथ-पैर समेटे
काँप रहा, हिल रहा-वह मर जायगा।8
  कैलाश वाजपेयी का मानना है कि रोटी आदमी को रूलाती है, लेकिन कुछ समय पश्चात उसके अन्दर से एक और भूख उसे आवाज देने लगती है-
‘तुमने मिट्टी से इतिहास की
जगमग उठायी एक मीनार
जूतों को ठीक पैर
गेहूँ की खाली आँत दी
कि ठीक राह जा सके
जिन्दगी।’
कभी मगर सोचा न होगा तुमने मार्क्स
नक्शे पर है देश ऐसा भी?
  ‘देखना ओ गंगा मइया’ कविता में नागार्जुन गंगा नदी में से कूद-कूदकर पैसे ढूढते, रेत में टोह लेते हुए मल्लाहों के वस्त्रविहीन बच्चों का सजीव चित्रण कर रहे हैं –
‘चंद पैसे
दो-एक दुअन्नी-एकन्नी
कानपुर-बम्बई की अपनी कमाई में से
डाल गये हैं श्रद्धालु गंगा मइया के नाम
पुल पर से गुजर चुकी है ट्रेन
नीचे प्रवाहमान उथली-छिछली धार में
फुर्ती से खोज रहे पैसे
मल्लाहों के नंग-धड़ंग छोकरे।’10
  वर्षाऋतु में बाढ़ एक बहुत बड़ी त्रासदी है। कवि रामशेर बहादुर सिंह ‘बाढ़ 1948’ कविता में बाढ़ से होने वाली जन-धन की हानि का चित्रण करते हुए कह रहे हैं –
‘जमना में जबरदस्त बाढ़ आई है।
और गंगा में भी ………….!
बड़ी जबरदस्त बाढ़ आई है,
न जाने कितने मन बोरे गेहूँ के बह गए
कितनी ही कच्ची दिवारों में लीपा हुआ धन बचाया न जा सका, वह गया।’11
  रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, कालाबाजारी और मुद्रास्फीति के कारण अनेक आर्थिक समस्याओं ने गरीब एवं निम्न-मध्यवर्ग का जीवन कष्टदायी बना दिया है। जनता बेरोजगारी, भुखमरी और गरीबी से जूझ रही है। कवि उदय प्रकाश ने ‘वैरागी आया गाँव में’ कविता में अत्यंत गरीब जन की विपन्नता एवं दरिद्रता पूर्ण जीवन का सजीव वर्णन किया है –
‘जहाँ तुम्हारा चूल्हा ठंडा पड़ा है।
पतीली औंधी धरी है और पाँच दिन की भूखी कानी कुतिया जहाँ सो रही है। पाँच दिन की बुझी राख पर।’12
मानव मात्र के दुःख-दर्द से पीड़ित होने वाले, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने स्वतंत्र भारत में निर्धनता के आहत करने वाले पक्ष का चित्रण किया है। यह दृश्य हृदय को कचोटता है –
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, पर भूखे बालक अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।’13
आर्थिक विषमताओं को जन्म देने वाली व्यवस्था से मजदूर, किसान ही नहीं शिक्षक, कर्मचारी भी त्रस्त हैं। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित विद्यालयों और उनमें कार्य कर रहे शिक्षकों की वास्तविक स्थिति को ‘मास्टर’ शीर्षक कविता में कवि नागार्जुन द्वारा कुछ इस तरह चित्रण किया गया है –
‘लिखा अंत में ‘ध्यान दीजिए, बहुत दिनों से मिलान वेतन
किससे कहूँ, दिखाई पड़ते कहीं नहीं अब वे नेतागण
पिछले दफे किया था हमनें पटने में जा-जाके अनसन
स्वयं अर्थमन्त्री जी निकले, वह दे गये हमें आश्वासन
और क्या लिखूँ, इन देहाती स्कूलों पर भी दया कीजिए
दीन-हीन छात्रों-गुरुओं की कुछ भी तो सुध आप लीजिए,
हटे मिटे यह निपट जहालत, प्रभु ग्रामीणों पर पसीजिए,
कई फंड हैं उनमें से अब हमको वाजिब एड दीजिए।।’14
अर्थाभाव में सहयोग, दया, प्रेम-प्यार, स्नेह, मिलना-जुलना, करुणा, सहानुभूति आदि भाव समाज में तिरोहित से होने लगते हैं। समकालीन साहित्यकारों ने अपनी कविता में बड़ी मार्मिकता के साथ इस भावना को अभिव्यक्त किया है। आर्थिक संकट से रूबरू गृहणी अपने चूल्हे में परिवार के सभी सदस्यों के लिए रोटी के हिस्से बनाती है। सम्पूर्ण परिवार अभावों से जूझ रहा है। ‘गृहणी भोजन बनाते-बनाते कुल सामग्री का हिस्सा-बाँटा करने में लगी है। वस्तुतः यह वर्ग इतनी निर्धनता में जीवन-यापन कर रहा है, कि ‘रोटी’ सदृश नितांत नैसर्गिक आवश्यकता की प्रतिपूर्ति में भी असमर्थ है। यहाँ बच्चे भूखे रह जाते हैं। माँ का चेहरा पथराया रहता है, पिता अभावों में जूझते काठ बन जाते हैं। सारा-का-सारा घर अपनी ही आग में जलता हुआ प्रतीत होता है।’15
समकालीन साहित्यकारों में पूँजीपति वर्ग के प्रति घोर घृणा का भाव झलकता है। वे समझते हैं कि पूँजीपति गरीबों का रक्त चूसकर वातानुकूलित कक्षों में बेफिक्र होकर सो रहे हैं, जबकि गरीब जन अभावग्रस्त स्थिति में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।
डॉ0 जगदीश चन्द्र जोशी
असि० प्रोफेसर हिन्दी-विभाग
एम०बी०राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
हल्द्वानी (नैनीताल) 263139
म्.डंपस रू रवेीप-ीपदकप01/हउंपसण्बवउ
मोबा0-7500334778
1- चालीसोत्तर कविता के हीरक हस्ताक्षर-डॉ0 दुर्गाप्रसाद ओझा, डॉ0 मधुखन्ना, डॉ0 इला सुकुमार, पृष्ठ-128
2- चालीसोत्तर कविता के हीरक हस्ताक्षर-डॉ0 दुर्गाप्रसाद ओझा, डॉ0 मधु खन्ना, कु0 इला सुकुमार, पृष्ठ-142
3- चालीसोत्तर कविता के हीरक हस्ताक्षर-डॉ0 दुर्गाप्रसाद ओझा, डॉ0 मधु खन्ना, कु0 इला सुकुमार, पृष्ठ-160
4- हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ-119
5- हिन्दी साहित्य का इतिहास-डॉ0 श्री निवास शर्मा, पृष्ठ-687
6- संसद से सड़क तक – धूमिल, पृष्ठ-125
7- सूर्य का स्वागत-दुष्यन्त कुमार, पृष्ठ-72
8- चाँद का मुँह टेढ़ा है – ग0मा0 मुक्तिबोध, पृष्ठ-35
9- प्रतिनिधि कविताएं – कैलाश वाजपेयी, पृष्ठ-75
10- चालीसोत्तर हिन्दी कविता-डॉ0 रामअँजोर सिंह, डी0पी0 ओझा, पृष्ठ-255, 256
11- प्रतिनिधि कविताएं – शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ-80
12- अबूतर-कबूतर: वैरागी आया है गाँव में – उदय प्रकाश, पृष्ठ-16
13- हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 श्रीनिवास शर्मा, पृष्ठ-629
14- प्रतिनिधि कविताएं – नागार्जुन पृष्ठ-100
15- समकालीन हिन्दी कविता में आमआदमी – मृदुला जोशी, पृष्ठ-126
मौलिकता प्रमाण-पत्र
मैं डॉ0 जगदीश चन्द्र जोशी, असि0 प्रोफेसर हिन्दी, यह घोषणा करता हूूँ कि ‘समकालीन साहित्य में आर्थिक विमर्श’ शोध आलेख, मेरा मौलिक  शोध आलेख है।
दिनांक – 12/04/2023    डॉ0 जगदीश चन्द्र जोशी
असि० प्रोफेसर हिन्दी-विभाग
एम०बी०राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
हल्द्वानी (नैनीताल) 263139
म्.डंपस रू रवेीप-ीपदकप01/हउंपसण्बवउ