25. समकालीन साहित्यकार माता प्रसाद के नाटकों में दलित विमर्श – आशीष कुमार पटेल
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समकालीन साहित्यकार माता प्रसाद के नाटकों में दलित विमर्श – आशीष कुमार पटेल
प्रस्तावना- प्रकृति की निगाह में सभी मनुष्य बराबर होते हैं। सभी मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस जन्म और मृत्यु के बीच की दूरी का नाम जीवन है। इस जीवन को जीने के क्रम में कुछ मनुष्य जन्म से प्राप्त विशेषाधिकार के कारण दूसरे मनुष्यों को अधिकारों और संसाधनों से वंचित रखना चाहते हैं। अमुक मनुष्य जिस समाज में रहता है, उसी समाज में उसे अपने मनुष्यत्व की पहचान देने की आवश्यकता हो और अपने अस्तित्त्व पर आ रहे या आने वाले संकट को हटाकर प्रकृति प्रदत्त अस्मिता यानि मनुष्यत्व को दूसरों के सामने प्रत्यक्ष करने की जरूरत हो। इसी जरूरत की पूर्ति के परिणाम स्वरूप विमर्श साहित्य लेखन की आवश्यकता पड़ती है।
दलित विमर्श से संबंधित साहित्य उस मानवीय हक को प्राप्त करने की वकालत करता है जिसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग नकार देते हैं। दलित विमर्श, दलित समाज के प्रति हो रहे अमानवीय व्यवहार और अत्याचार के प्रतिरोध के साथ ही संविधान के आलोक में समान अधिकार की मांग और समता मूलक समाज की स्थापना का पक्षपाती है।
विषय प्रवेश- समकालीन शब्द का सामान्य अर्थ है- ‘एक ही काल का या एक ही समय का’। जब समकालीन शब्द साहित्य के साथ जुड़ता है तो वह विशेष अर्थ को इंगित करता है। समकालीन साहित्य शब्द युग्म का अर्थ ऐसे साहित्य से हैं जिसमें साहित्यकार अपने समय, समाज और परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण करता है। साहित्यकार परम्परागत मूल्यों और विचारों से टकराता है। इस टकराने के क्रम में प्रगतिशील मूल्यों और विचारों का समर्थन करता है और प्रतिगामी मूल्यों और विचारों का खुल कर विरोध भी करता है। इसके साथ ही सत्ताधारी या पूंजीपति व्यक्तियों के शोषणयुक्त और दमनात्मक रवैये का मुखर प्रतिरोध भी करता है। समकालीन साहित्यकार समाज में सकारात्मक परिवर्तन का पक्षपाती होता है। समकालीन के परिभाषित करते हुए मधुरेश लिखते हैं-
“समकालीन होने का अर्थ है समय के वैचारिक और रचनात्मक दबाव को झेलते हुए, उनसे उत्पन्न तनावों और टकराहटों के बीच अपनी सर्जनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना। समकालीन लेखक की पहचान यही हो सकती है कि अपने समय के सवालों के प्रति वह किस तरह प्रतिक्रिया करता है और अपने लेखन में उन सवालों के लिए जो जगह वह निर्धारित करता है, उन सवालों के प्रति वह कितना गम्भीर है, कहीं न कहीं इन सबसे ही उसकी समकालीनता सुनिश्चित होती है।”[1]
माता प्रसाद के नाटक साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये समकालीन साहित्यकार होने के साथ ही साथ दलित विमर्श के उल्लेखनीय हस्ताक्षर है। इनके नाटक साहित्य में समाज में व्याप्त छुआ-छूत, वर्ण भेद, जाति भेद जैसे प्रतिगामी तत्त्वों का विरोध है और मनुष्यत्व एवं समता की स्थापना की पुरजोर कोशिश है।
माता प्रसाद के नाटकों में दलित विमर्श- इनके द्वारा सृजित नाटक है- (1) अछूत का बेटा, (2) धर्म के नाम पर धोखा, (3) वीरांगना झलकारी बाई, (4) वीरांगना ऊदा देवी पासी, (5) तड़प मुक्ति की, (6) प्रतिशोध, (7) धर्म परिवर्तन, (8) सन्त शिरोमणि गुरू रविदास, (9) हम एक है, (10) दिल्ली की गद्दी पर खुसरो भंगी, (11) राजनीतिक दलों में दलित एजेंडा, (12) महादानी राजा बलि।
समकालीन साहित्यकार माता प्रसाद के नाटकों में चित्रित दलित विमर्श को हम अग्रलिखित शीर्षकों में देख सकते हैं-
- आनार्य-आर्य संघर्ष- दलित विमर्श की जड़े आनार्य-आर्य संघर्ष से जुड़ी हुई है। इस विमर्श के चिन्तकों का मानना है कि आनार्य भारतभूमि के मूल निवासी है और आर्य विदेशी है या वे बाहर से आये हैं। माता प्रसाद भी इस बात के समर्थन में लिखते हैं कि- “बाहर से आने वाले अपने आप को आर्य कहते थे और यहाँ के मूल निवासियों को अनार्य।”[2] आर्यों और अनार्यों में संघर्ष हुआ जिसमें आर्य विजयी हुए। इसके बाद आर्य, अनार्यों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगे एवं उनकी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने में लग गये। अनार्यों को असुर, दैत्य, राक्षस, शूद्र आदि नामों से पुकारने लगे। इस संघर्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित माता प्रसाद का एक महत्त्वपूर्ण नाटक ‘महादानी राजा बलि’ है।
- वर्ण व्यवस्था का विरोध- अनार्यों को पराजित करने के बाद उन्हें गुलाम बनाये रखने के लिए आर्यों ने वर्ण व्यवस्था बनाई। इस व्यवस्था के अनुसार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। इस व्यवस्था में प्रथम तीन वर्ण को जन्मसिद्ध विशेषाधिकार प्राप्त था। ब्राह्मण जन्म से ही पूजा-पाठ कराने, शिक्षा देने, समाज में सबसे उच्च और पूजनीय होने का अधिकारी हो जाता था, भले ही वह मूर्ख या कदाचारी हो। क्षत्रिय जन्म से ही राजतंत्र या शासन व्यवस्था से जुड़ जाता था, चाहे वह शारीरिक रूप से निर्बल क्यों न हो। वैश्य वर्ण में जन्मा व्यक्ति व्यपार का कार्य करता था। सबसे सोचनीय और दुर्दशा शूद्र वर्ण की थी क्योंकि इन लोगों को अपने से उच्च तीन वर्णों की सेवा करना बताया गया था। पुनर्जन्म के भ्रम और आडम्बर को फैलाकर शूद्रों से निम्न या घृणित कार्य कराये जाते थे। इनको शिक्षा प्राप्ति पर पूर्ण मनाही थी। यदि कोई शूद्र व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करता या अपने वर्ण को जागरूक करता वह उच्च वर्ण के आँखों में शूल बन जाता। ‘धर्म परिवर्तन’ नाटक में जब सयाजू राव गायकवाड़, डॉ. भीमराव अम्बेडकर को अपने राज्य का डिप्टी एकाउन्टेन्ट नियुक्त करते है तब उच्च वर्ण का दम्भ रखने वालों की तिलमिलाहट को हम निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं-
‘‘अरे बाप रे! महाराज को क्या हो गया है? घोर कलयुग आ गया है। शूद्र ही इस काम के लिए रह गया था। अब तो धर्म बिना रसातल को गये बचेगा नहीं। क्या महाराज को ऊँची जाति का अफसर नहीं मिला? हम लोग उसके नीचे कैसे काम करेंगे? यह तो महाघोर अनर्थ हो गया।’’[3]
वर्ण व्यवस्था के पाश को तोड़ने या खत्म करने के स्वर माता प्रसाद के नाटकों प्रमुखता से दिखाई पड़ते हैं।
- जाति व्यवस्था का विरोध- सामाजिक बन्धन अधिक कठोर बनाने के लिए आर्यों ने वर्ण के बाद जातियाँ बनाई। जाति जन्म से ही निर्धारित होती थी। जन्म से प्राप्त जाति में प्रचलित व्यवसाय, शिक्षा, वैवाहिक बन्धन और रीति-रीवजों को व्यक्ति चाह कर भी तोड़ नहीं सकता था। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता था तो उच्च जाति के लोग उसकी जान लेने पर आमदा हो जाते थे। ‘अछूत का बेटा’ नाटक से एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
‘‘भूलन सिंह- यह जगुआ का लौंड़ा, तो सभी छोटी जातियों को उभार रहा है, इसने मरे पशुओं को उठाना बन्द कर दिया है। इनके घरों की औरतों नाल काटना छोड़ दिया है, अब यह मजदूरी बढ़ाने को आन्दोलन कर रहा है।
रजई सिंह- चमर चिठ्टी के चार अक्षर पढ़ लिया, तो अब नेतागीरी करना चाहता है। बस आज न रहे बांस, न बजे बांसुरी।’’[4]
माता प्रसाद के अन्य नाटकों में उच्च जातियों के लोगों के जातिय अभिमान, दम्भ और निम्न जातियों के द्वारा जाति व्यवस्था के प्रति संघर्ष एवं विरोध के अनेक प्रसंग और दृश्य मिलते हैं।
- धर्माड़म्बरों का चित्रण- दुनिया में सबसे बड़ा धर्म मानवता है। परन्तु, मानव निर्मित धर्मों के कारण मनुष्य अब मनुष्य के रूप में नहीं हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के रूप में पहचाना जाता है। धर्म में व्याप्त भाग्यवाद, चमत्कारवाद, अवतारवाद, विशेष अवसर पर दर्शन-पूजन आदि सामान्य जनता के शोषण के तंत्र है। माता प्रसाद ने केवल हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि मुस्लिम धर्म की बुराईयों का भी विरोध किया है। धर्म के नाम पर उत्पन्न प्रशासनिक समस्याओं का चित्रण करते हुए माता प्रसाद अपने नाटक ‘हम एक हैं’ में लिखते हैं-
“नवरात्रि में पंड़ालों में सड़को पर खम्भे गाड़कर राड लगा कर बिजली ली जाती है, बरावफात के पण्डालों में भी यही होता है। इनमें बिजली कनेक्शन नहीं लिया जाता। धर्म के नाम पर बिजली चोरी कर अधर्म किया जाता है।”[5]
वर्तमान समय में धर्म के नाम पर मारपीट, कत्लेआम, दंगा-फसाद आम बात हो गई है। धर्म के नाम पर कुछ साधु ठगी का काम कर रहे हैं। ऐसे ठगों और फसादों से जनता को सचेत करने के लिए माता प्रसाद ने रचनात्मक उपक्रम किया है।
- प्रशासनिक भ्रष्टाचार का चित्रण- माता प्रसाद ने अपने नाटकों में प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के अनेक प्रंसगों को उठाया है। सरकार द्वारा दिये गये अनुदान को प्रशासनिक महकमा कैसे लूटता हैं, इसका एक उदाहरण नाटक ‘तड़प मुक्ति की’ से उध्दृत विकास अधिकरी नामक पात्र के निम्न कथन में देख सकते हैं-
“सरकार ने 50 लाख रूपए जिले में दलितों के आर्थिक उत्थान के लिए स्पेशल कम्पानेंट प्लान में भेजा है।… इसमें आधी राशि अनुदान है, आधी राशि कर्ज है। हम सीधे लाभार्थी को धन नहीं देंगे, बल्कि हर उद्योग-धन्धे या कारेबार के लिए एक ऐजेंसी हमें तय करनी है उसी से सामान लेने पर ही लाभार्थी को हम आधी छूट की रकम देंगे।”[6]
प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण सरकार द्वारा चलाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं का लाभ अपात्र व्यक्ति ही उठाते है और जरूरतमन्द वंचित रह जाते हैं।
- अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन- अपने नाटकों में माता प्रसाद ने जाति व्यवस्था के कारण समाज में हो रहे शोषण के अनेक घटनाओं का चित्रण किया है। जाति व्यवस्था ने समाज की अनेक प्रतिभाओं का दमन किया है। अपनी ही जाति में विवाह की अनिवार्यता के कारण समाज में दहेज प्रथा जैसी बुराई फैली है। उदाहरण के लिए हम ‘अछूत का बेटा’ नाटक के पं. हरिप्रसाद के निम्न कथन को देख सकते हैं-
“हरिप्रसाद- क्या करूं पंडिताइन, मैं तो बड़ी कोशिश कर रहा हूं। कहीं कोई अच्छा लड़का ही नहीं मिल रहा है। विजयगढ़ गए, वहां एक लड़का हाईस्कूल पास है, उसका बाप पचास हजार तिलका मांग रहा है। नारायणपुर में एक लड़का प्राइमरी पास है, दस बीघे खेत हैं, उसका भी बाप दस हजार रुपये तिलक से कम पर बात नहीं करता।”[7]
इस जाति के बन्धन के तोड़ने के लिए माता प्रसाद ने अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन किया है। नाटककार ने ‘अछूत का बेटा’ नाटक में पात्र शिवराम और कमला देवी का अन्तर्जातीय और सोमेश्वर तथा मरिअम्मा का अन्तरधार्मिक विवाह होते हुए दिखाया है।
- सर्वधर्म समभाव के दृश्य- माता प्रसाद के नाटकों में हिन्दू धर्म में व्याप्त आडम्बरों, बुराईयों और इस्लाम धर्म के कट्टरता को उजागर तो किया ही है, इसके साथ ही कुछ ऐसे कथन या प्रसंग देखने को मिलते हैं जो सर्वधर्म समभाव के पोषक है। जैसे ‘सन्त शिरोमणि गुरु रविदास’ नाटक में रैदास का निम्नलिखित कथन-
“रैदास- हम तो श्रमण संस्कृति में विश्वास करते हैं। एक ही ब्रह्मा को सबमें मानते हैं। मन्दिर-मस्जिद, राम-रहीम एक ही है।”[8] माता प्रसाद के निगाह में कोई धर्म न बड़ा है न छोटा है। धर्म में व्यपात बुराईयों के चित्र खींचे है तो साथ ही मानवीय धर्म के दृश्य को भी दृश्यांकित किया है।
माता प्रसाद ‘हम एक है’ नाटक में धर्म के एक नये स्वरूप और परिभाषा को गढ़ते हुए नाटक के पात्र ‘डॉ. अबू मुहम्मद’ और ‘कृष्ण कुमार’ से क्रमश: कहलवाते हैं-
“डॉ. अबू मुहम्मद- कल्लन, हमारे यहाँ भर्ती मरीज़ हैं। वह न तो हिन्दू है, न मुसलमान। मुझ पर यकीन करके आये हैं, वे दुखी और परेशान है, उन्हें मैं राहत दूँगा।
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कृष्ण कुमार- अगर हमने अपने घर में किसी पीड़ित को शरण दे रखी है तो इसमें कौन सी गलती की है? आपत्तिकाल में किसी को शरण देना हम अपना धर्म मानते हैं।”[9]
उपर्युक्त कथनों को पढ़ने बाद ज्ञात होता है कि मनुष्य होकर मनुष्य की रक्षा करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
- निष्कर्ष- निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि समकालीन साहित्यकार माता प्रसाद दलित विमर्श के एक सशक्त हस्ताक्षर है। इनके द्वारा सृजित नाटक साहित्य अपने समय की विद्रूपताओं, कठिनाईयों और समस्याओं को उजागर करते हैं। ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित माता प्रसाद के नाटक दलित इतिहास बोध को जागरित करते है, इसके साथ ही वे दलित इतिहास को नये ढ़ंग से परिभाषित करते हैं। माता प्रसाद पहले से चली आ रही अमानवीय क्रियाओं और मान्यताओं पर प्रश्न खड़ा करते हैं। इन प्रश्नों का सकारात्मक एवं समाज हित में जवाब प्रस्तुत करने का प्रयास भी करते हैं।
[1] हिन्दी कहानी का विकास : मधुरेश, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, नवम् संस्करण 2018 ई.,पृ.सं. 176।
[2]भारत में दलित जागरण और उसके अग्रदूत : माता प्रसाद, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2010 ई., पृ. सं. 15।
[3]धर्म परिवर्तन : माता प्रसाद, बुद्ध अम्बेडकर कल्याण एसो., उ. प्र.(लखनऊ), प्रथम संस्करण 2018 ई. पृ. सं. 13।
[4] अछूत का बेटा : माता प्रसाद, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम(सम्यक) संस्करण 2013 ई. पृ.सं. 30।
[5] हम एक हैं : माता प्रसाद, प्रकाशक- भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005 ई., पृ.सं. 20।
[6] तड़प मुक्ति की : माता प्रसाद, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम(सम्यक) संस्करण 2015 ई., पृ. सं. 32।
[7]अछूत का बेटा : माता प्रसाद, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम(सम्यक) संस्करण 2013 ई. पृ.सं. 16।
[8]सन्त शिरेमणि गुरु रविदास : माता प्रसाद, आकाश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, गाजियाबाद(उ.प्र.), प्रथम संस्करण 2003 ई., पृ.सं. 15।
[9]हम एक हैं : माता प्रसाद, प्रकाशक- भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005 ई., पृ.सं. 30 व 32।
सम्पर्क:
आशीष कुमार पटेल,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय,गया, बिहार (824236)
नामांकन संख्या: CUSB2008275003